सिद्धांत रहस्यम् – षोडस ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी रचित षोडस ग्रंथ मे से एक सिद्धांत रहस्यम् ग्रंथ |

सिद्धांत रहस्यम् ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

वी. सं. १५४९ मे भगवद आज्ञा से श्री महाप्रभुजी जीवों के उद्धार हेतु भारत परिक्रमा करने पधारे तब आपश्री ब्रिज मे ठकुरानी घाट पर चिंतामग्न अवस्था मे विराजमान थे की कलियुग के जीव तो दोष से भरे हुए है और प्रभु तो कितने कोमल है, कैसे जीवों का उद्धार करे… तब साक्षात प्रभु श्री गोकुल चंद्रमाजी के रूप मे प्रकट हुए और श्री महाप्रभुजी को आज्ञा की “है वल्लभ, आप जीव को ब्रम्हसंबंध की दीक्षा दे कर शरण मे लो, एक बार ब्रम्हसंबंध होने के पश्चात कदाचित आप जीव का साथ छोड़ सको लेकिन मे नाय छोडु |”

आज्ञा करके प्रभु अंतरध्यान हो गए तब श्री महाप्रभुजी से थोड़ी ही दूरी पर श्री दामोदरदास हरसानिजी अर्धजागृत अवस्था मे पोढ़े हुए थे वे श्री महाप्रभुजी और श्री ठाकोरजी का अद्भुत अलौकिक संवाद सुन रहे थे | श्री महाप्रभुजी ने उनको जगाया और पूछा “दमला कछु सुन्यो ?” तब दमलाजी बोले “ सुन्यो तो सही पर समज्यों नहीं” तब श्री महाप्रभुजी ने उनको यमुना जल मे स्नान करने की आज्ञा की | तदपश्चात श्री महाप्रभुजी ने आपके सेव्य श्री मुकुंदरायजी के सन्मुख सर्व प्रथम ब्रम्हसंबंध की दीक्षा श्री दमलाजी को देकर वैष्णव बनाया |

तब श्री महाप्रभुजी ने पुष्टिमार्ग का रहस्य, प्रभु की वाणी का रहस्य, पुष्टिमार्ग के सिद्धांतों का रहस्य… “श्री सिद्धांत रहस्य” ग्रंथ का दान श्री दमलाजी को दिया और समजाया की प्रभु ने जो आज्ञा की है वही अक्षरहसह इस ग्रंथ मे लिखी है | जिसमे आपश्री समजाते है की ब्रम्ह संबंध लेने से जीव के सारे दोषों का निवारण होता है और प्रभु के श्री चरणों के लायक बने है |

सिद्धांत रहस्यम्

श्रावण श्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि ।
साक्षात भगवता प्रोक्तं तदक्षरश: उच्यते ॥१॥

ब्रमसम्बंध करणात्, सर्वेषां देह जीवयोः ।
सर्व दोषनिवृत्तिर्हि, दोषाः पंचविधा: स्मृताः ॥२॥

सहजा देश कालोत्था, लोकवेद निरूपिताः ।
संयोगजाः सपर्शजाश्च न मन्तव्याः कथन्चन ॥३॥

अन्यथा सर्व दोषाणां न निवृत्ति: कथंचन ।
असमर्पित वस्तुनां तस्माद्वर्जनमाचरेत् ॥४॥

निवेदिभिः समर्यैव, सर्व कुर्यादिति स्थितिः ।
न मतं देवे देवस्य, सामिभुक्त समर्पणम् ॥५॥

तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तु समर्पणम् ।
दत्तापहार वचनं तथा च सकलं हरे : ॥६॥

न ग्राह्ममिति वाक्यं हि, भिन्न मार्ग परंमतम् ।
सेवकानां यथालोके, व्यवहारः प्रसिध्यति ॥७॥

तथा कार्य समप्यैॅव, सर्वेषां ब्रह्मता ततः ।
गंगात्वं सर्व दोषाणां, गुण दोषादि वर्णना
गंगात्वेन निरूप्या स्यात् – तद्दवत्रापि चैव हि ॥८॥

॥ इति श्रीमद् वल्लभाचार्य विरचितं सिद्धान्तरहस्यं सम्पूर्णम् ॥

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