हरीराई जी कृत बड़ी दान लीला

श्री हरीराइजी महाप्रभुजी कृत बड़ी दान लीला |  प्रभु व्रजकुँवर रसराज श्री कृष्ण ने गोपियों से दान (कर) मांगा |

प्रभु ने दान लीला व्रजभूमि के कई स्थान पर की है जैसे  व्रजवितान में, दानघाटी सांकरी-खोर में, गहवर वन में, वृन्दावन में, गोवर्धन के मार्ग पर, कदम्बखंडी में, पनघट के ऊपर, यमुना घाट पर आदि विविध स्थलों पर व्रजभक्तों से दान लिया है | और उन्हें अपने प्रेमरस का दान किया है | 

इन दौरान प्रभु और गोपियों के बीच के संवाद चल रहा है वह लीला के दर्शन इनमे होते है | हर पुष्टिमार्गीय वैष्णवन को अपने सेव्य स्वरूप ठाकुरजी का मन मे ध्यान करके यह लीला का गान करना चाहिए | बिनती करनी चाहिए की प्रभु गोपियों की तरह हमसे भी हठ करके मांगे | हमे वह लीला के दर्शन हो |

दान लीला के बारे मे अधिक जानने के लिए एवं अंग्रेजी – गुजराती या हिन्दी भाषा मे जानकारी के लिए  हमारे प्लेटफ़ॉर्म  पर दान एकादशी सर्च करे | अथवा लिंक नीचे दी गई है |

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हरीराई जी कृत बड़ी दान लीला

राग-बिलावल

तुम नंदमहर के लाल मोहन जाने दे।

रानी जसुमति प्रान आधार मोहन जाने दे॥ 

श्री गोवर्धन के शिखर तें, मोहन दीनी टेर।

अंतरंग सों कहतें सब ग्वालिन राखों घेर॥ नागरी दान दे ॥१॥

ग्वालिन रोकी ना रहे ग्वाल रहे पचिहार।

अहो गिरधारी दोरिया सो कह्यो न मानत ग्वार ॥॥ नागरी दान दे ॥२॥

चली जात गोरस मदमाती मानो सुनत नही कान।

दोरि आये मन भामते सों रोकी अंचल तान॥॥ नागरी दान दे ॥३॥

एक भुजा कंकन गहे, एक भुजा गहि चीर।

दान लेन ठाडे भये, गहवर कुंज कुटीर॥॥ नागरी दान दे ॥४॥

बहुत दिना तुम बची गई हो दान हमारो मार।

आजहों लेहों आपनो दिन दिन को दान संभार ॥ नागरी दान दे ॥५॥

र्स निधान नव नागरी निरख वचन मृदु बोल।

क्यों मुरी ठाडी होत हे, घूंघट पट मुख खोल॥ नागरी दान दे ॥६॥

हरख हिये करि करखिकें मुख तें नील निचोल।

पूरन प्रगट्यो देखिये मानो चंद घटा की ओल ॥ नागरी दान दे ॥७॥

ललित वचन सुमुदित भये नेति नेति यह बेन।

उर आनंद अतिहि बढ्यो सो सुफल भये मिलि नेने॥ नागरी दान दे ॥८॥

यह मारग हम नित गई कबहू सुन्यो नही कान।

आज नई यह होत हे सो मांगत गोरस दान॥ मोहन जाने दे ॥९॥

तुम नवीन नवनागरि नूतन भूषण अंग।

नयो दान हम मांगनो सो नयो बन्यो यह रंग॥ नागरी दान दे ॥१०॥

चंचल नयन निहारिये अति चंचल मृदु बेन।

कर नही चंचल कीजिये तजि अंचल चंचल नेन॥मोहन जाने दे ॥११।

सुंदरता सब अंग की बसनन राखी गोय।

निरख निरख छबि लाडिली मेरो मन आकर्षित होय॥ नागरी दान दे ॥१२॥

ले लकुटी ठाडे रहे जानि सांकरि खोर।

मुसकि ठगोरि लायके सकत लई रति जोर॥ मोहन जाने दे ॥१३॥

नेंक दूरि ठाडे रहोकछू ओर सकुचाय।

कहा कियो मन भावते मेरे अंचल पीक लगाय॥ नागरी दान दे ॥१४॥

कहा भयो अंचल लगी पीक हमारी जाय।

याके बदले ग्वालिनी मेरे नयनन पीक लगाय॥ मोहन जाने दे ॥१५॥

सुधे बचनन मांगिये लालन गोरस दान।

मोहन भेद जनाई के सो कहेत आन की आन॥ नागरी दान दे ॥१६॥

जैसे हम कछु कहत हे एसी तुम कहि लेहु।

मन माने सो कीजिये पर दान हमारो देहु॥ मोहन जाने दे ॥१७॥

कहा भरे हम जात हे दान जो मांगत लाल।

भई अवार घर जाने दे सो छांडो अटपटी चाल॥ नागरी दान दे ॥१८॥

भरे जातहो श्री फल कंचन कमल वसन सों ढांक।

दान जो लागत ताहि को तुम देकर जाहु नोंसाक॥ मोहन जाने दे ॥१९॥

इतनी विनती मानिये मांगत ओलि ओड।

गोरस को रस चाखिये लालन अंचल छोड॥ नागरी दान दे ॥२०॥

संग की सखी सब फिर गई सुनि हें कीरति माय।

प्रीति हिय में राखिये सो प्रगट किये रस जाय॥ मोहन जाने दे ॥२१॥

काल्ह बहोरि हम आय हें गोरस ले सब ग्वारि।

नीकि भांति चखाई हें मेरे जीवन हों बलिहारी॥ नागरी दान दे ॥२२॥

सुनि राधे नवनागरी हम न करे विश्वास।

करको अमृत छांडि के को करे काल्हिकी आस॥ मोहन जाने दे ॥२३॥

तेरो गोरस चाखवे मेरो मन ललचाय।

पूरन शशिकर पाय के चकोर धीर न धराय॥ नागरी दान दे ॥२४॥

मोहन कंचन कलसिका किली सीस उतार।

श्रमकन वदन निहारिके सो ग्वालिन अति सुकुमार॥ मोहन जाने दे ॥२५॥

नव विंजन गहि लालजु श्री कर देत ढुराय।

श्रमित भई चलो कुंज में नंक पलोटु पाय॥ नागरी दान दे ॥२६॥

जानत हो यह कोन हे एसी ढीठ्यो देत।

श्री वृषभानकुमारि हे अरि तोहि बीच को लेत॥ मोहन जाने दे॥२७॥

गोरे श्री नंदराय जु गोरि जसुमति माय।

तुम यांहिते सामरे एसे लच्छित पाय ॥मोहन जाने दे॥२८॥

मन मेरो तारन बसे ओर अंजन की रेख।

चोखी प्रीत हिये बसे यातो सांवल भेख॥॥ नागरी दान दे ॥२९॥

आप चाल सों चालिये यहे बडेन की रीति।

एसी कबहुं न कीजिए हँसे लोग विपरीति॥ नागरी दान दे ॥३०॥

ठाले ठुले फिरत हो और कछु नही काम।

बाट घाट रोकत फिरो आन न मानत श्याम ॥मोहन जाने दे॥३१॥

यही हमारो राज है ब्रजमंदल सब ठौर।

तुम हमारी कुमुदिनी कम कमल बदन के भोंर। ॥ नागरी दान दे ॥३२॥

एसे में कोउ आई हे देंखे अद्भुत रीति।

आज सबे नंदलाल जु प्रगट होयगी प्रीति॥मोहन जाने दे॥३३॥

व्रज वृंदावन गिरी नदी पशु पंछी सब संग।

इनसो कहा दुराइये प्यारे राधा मेरो अंग॥॥ नागरी दान दे ॥३४॥

अंस भुजा धरि ले चले प्यारी चरन निहोर।

निरखत लीना रसिकजु जहां दान के ठोर॥मोहन जाने दे॥३५॥

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