श्री सर्वोत्तमस्तोत्रम्

प्राकृत धर्मानाश्रय-मप्राकृत निखिल धर्म रूपमिति ।
निगम प्रतिपाद्यमं यत्-तच्छुद्वं साकृति सतौमि ॥१॥

कलिकाल तमश्छन्न- दृष्टित्वा द्विदुषामपि ।
संप्रत्य विषयस्तस्य, माहात्म्यं समभूदभुवि. ॥२॥

दयया निज माहात्म्यं, करिष्यन्प्रकटं हरिः ।
वाण्या यदा तदा स्वास्यं, प्रादुर्भूतं चकार हि ॥३॥

तदुक्तमपि दुर्बोधं, सुबोधं स्याद्यथा तथा ।
तन्नामाष्टोरतरशतं, प्रवक्ष्याम्यखिलाघहृत. ॥४॥

ऋषिरग्नि कुमारस्तु, नाम्नां छन्दो जगत्यसौ ।
श्री कृष्णास्यं देवता च, बीजं कारुणिकः प्रभुः ॥५॥

विनियोगो भक्तियोग:, प्रतिबंध विनाशने ।
कृष्णाधरामृता स्वाद- सिद्धिरत्र न संशयः ॥६॥

आनंदः परमानंदः, श्रीकृष्णास्यं कृपानिधिः ।
दैवोद्धार प्रयत्नात्मा, स्मृतिमात्रार्तिनाशनः. ॥७॥

श्री भागवत गूढार्थ- प्रकाशन परायणः ।
साकार ब्रह्मवादैक, स्थापको वेदपारगः ॥८॥

मायावाद निराकर्ता, सर्ववादि निरासकृत ।
भक्तिमार्गाब्जमार्तण्डः, स्त्रीशूद्राद्युदधृतिक्षमः ॥ ९॥

अंगीकृतयैव गोपीश, वल्लभीकृतमानवः ।
अंगीकृतौ समर्यादो, महाकारुणिको विभुः. ॥१०॥

अदेयदानदक्षश्च, महोदारचरित्रवान ।
प्राकृतानुकृतिव्याज – मोहितासुर मानुषः ॥११॥

वैश्वानरो वल्लभाख्यः, सद्रूपो हितकृत्सताम
जनशिक्षाकृते कृष्ण, भक्तिकृन्नि खिलेष्टदः ॥१२॥

सर्वलक्षण सम्पन्नः, श्रीकृष्णज्ञानदो गुरुः ।
स्वानन्दतुन्दिलः पद्म – दलायतविलोचनः ॥१३॥

कृपादृग्वृष्टिसंहृष्ट, दासदासी प्रियः पतिः ।
रोषदृक्पात संप्लुष्ट – भक्तद्विट भक्त सेवितः ॥१४॥

सुखसेव्यो दुराराध्यो, दुर्लभांध्रिसरोरुहः ।
उग्रप्रतापो वाक्सीधु, पूरिता शेषसेवकः ॥१५॥

श्री भागवत पीयूष – समुद्र मथनक्षमः ।
तत्सारभूत रासस्त्री भाव पूरित विग्रहः ॥१६॥

सान्निध्यम्मात्रदत्त श्री कृष्णप्रेमा विमुक्तिदः ।
रासलीलैकतात्पर्यः, कृपयैतत्कथाप्रदः ॥१७॥

विरहानुभवैकार्थ, सर्वत्यागोपदेशकः ।
भक्त्याचारोपदेष्टा च, कर्ममार्गप्रवर्तकः ॥१८॥

यागादौ भक्तिमार्गैक – साधनत्वोपदेशकः ।
पूर्णानन्दः पूर्ण कामो , वाक्पतिर्विबुधेश्वरः ॥१९॥

कृष्णनामसहस्त्रस्य – वक्ता भक्तपरायणः ।
भक्त्याचारोपदेशार्थ – नानावाक्य निरूपकः ॥२०||

स्वार्थो जीजताखिल प्राण – प्रियस्ताद्रशवेष्टितः ।
स्व दासार्थ कृताशेष-साधनः सर्व शक्तिधृक ॥२१॥

भुवि भक्ति प्रचारैक-कृते स्वान्वयकृत पिता |
स्ववंशे स्थापिताशेष-स्वमहात्म्यः स्मयापहः ॥२२॥

पतिव्रतापतिः पार-लौकिकैहिक दानकृत ।
निगूढहृदयो नन्य – भक्तेषु ज्ञापिताशयः. ॥२३॥

उपासनादिमार्गाति, मुग्ध मोह निवारकः ।
भक्तिमार्गे सर्वमार्ग, वैलक्षण्यानुभूतिकृत ॥२४॥

पृथक्शरण मार्गोप – देष्टा श्री कृष्णहार्दवित ।
प्रतिक्षण निकुंजस्थ, लीला रस सुपूरितः ॥२५॥

तत्कथाक्षिप्तचितस्तद् – विस्मृत|न्यो व्रजप्रियः ।
प्रिय व्रज स्थितिः पुष्टिलीलाकर्ता रहः प्रियः ॥२६॥

भक्तेच्छा पूरकः सर्वा, ज्ञातलीलोतिमोहनः ।
सर्वासक्तो भक्तमात्रा-सक्तः पतितपावनः ॥ २७॥

स्वयशोगानसंहऋष्ठं , ऋदयाम्भोजविष्टरः ।
यशः पीयूष्लहरी, प्लावितान्यरसः परः. ॥२८॥

लीलामृतरसार्द्रार्द्री, कृताखिलशरीरभृत ।
गोवर्धनस्थित्युत्साह:, तल्लीला प्रेमपूरितः ॥२९॥

यज्ञभोक्ता यज्ञकर्ता, चतुर्वर्ग विशारदः ।
सत्य प्रतिज्ञ स्त्रिगुणा-तीतो नयविशारदः. ॥३०॥

स्वकीर्तिवर्द्धनस्तत्व-सूत्रभाष्यप्रदर्शकः ।
माया वादाख्य तूलाग्नि-र्ब्रह्मवादनिरूपकः. ॥३१॥

अप्राकृताखिलाकल्प-भूषितः सहजस्मितः ।
त्रिलोकीभूषणं भूमि-भाग्यं सहज सुन्दरः ॥३२॥

अशेष भक्त संप्रार्थ्य, चरणाब्ज रजोधनः ।
इत्यानंद निधेः प्रोक्तं, नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥३३॥

श्रृद्धाविशुद्धबुद्धिर्यः, पठत्यनु दिनं जनः ।
सतदेकमनाः सिद्धि – मुक्तां प्राप्नोत्यसंशय: ॥३४॥

तदप्राप्तौ वृथा मोक्ष-स्तदप्तौ तदगतार्थता ।
अतः सर्वोत्तमं स्तोत्रं, जप्यं कृष्ण रसार्थिभिः ॥३५॥

॥ इति श्रीमदग्निकुमारप्रोक्तं श्री सर्वोत्तमस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

रचना

यह स्तोत्र श्री महाप्रभुजी का नामात्मक स्वरूप है | श्री गुसाईजी प्रभुचरण ने श्री महाप्रभुजी के विविध चरित्रों का वर्णन करते हुए १०८ नाम का आलेखन यह स्तोत्र मे किया है |

महात्म्य

वैष्णवन यह स्तोत्र का पठन नित्य करने से श्री महाप्रभुजी के ग्रंथ सहजता से अध्ययन हो सकते है | यह ग्रंथ वैष्णवन के लिए गायत्री तुल्य है | महात्म्य का एक सुंदर प्रसंग भी है …

प्रसंग

श्री गुसाईजी के द्वितीय लालन श्री गोविंदरायजी के लालन श्री कल्याणरायजी के लालन श्री हरीराय महाप्रभुजी को बचपन से ही सत्संग मे अद्भुत रुचि …. गुरु और वैष्णवन के मध्य के मर्यादा का ध्यान धरे बिना आप वैष्णवन की टोली मे उनके साथ बिराजके नित्य सत्संग करते | बड़े लोगों ने समजाया की गुरु शिष्य के संबंध को ध्यान मे रख के गुरु स्थान पर बिराजीए | बाल स्वरूप होने से क्रम चालू रहा | इसलिए बड़े लोगों ने खंड मे बंध किया |

तब श्री हरीराय महाप्रभुजी को सत्संग का अत्यंत विरह हुआ इसलिए आपने श्री सर्वोत्तम स्तोत्र के तीन दिन तक निरंतर श्री सर्वोत्तम स्तोत्र का पठन किया | अलौकिक फल स्वरूप साक्षात श्री महाप्रभुजी ने श्री विठ्ठलनाथ जी के साथ दर्शन दिए | कुछ एस महात्म्य है श्री सर्वोत्तम स्तोत्र का | वैसे श्री हरीराय महाप्रभु चरण का सामर्थ्य अतुल्य है | श्री सर्वोत्तम स्तोत्र के नित्य संपूर्ण दृढ़ भाव से पठन करने से श्री महाप्रभुजी जीव का अधिकारित्व जानकार विभिन्न स्वरूप से दर्शन देते है |

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