चतुःश्लोकी ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :
गोधरा के राणा व्यास थोड़ा बहुत पढे हुए थे | उन्हे उनके ज्ञान का अभिमान था | छोटे मोटे पंडितों को शास्त्रार्थ मे हराकर अपने अहम का अनुभव करते | उन्होंने सोचा की अगर काशी के पंडितों को हराऊ तो मेरी ख्याति फेलेगी |
यह सोच कर काशी के पंडितों के साथ शास्त्रार्थ मे उतरे | वहा उनको बुरी तरह हार मिली | उनके अभिमान का भंग हुआ | अब उन्हे संसार मे रहने का मन नहीं रहा | सोचा की काशी मे गंगा नदी मे आत्महत्या करूंगा तो मोक्ष मिलेगा यह सोच कर गंगा नदी के तट पर अंधेरा होने की राह मे बैठे| तब उस समय श्री महाप्रभुजी अपने शिष्यों के साथ तट पर पधारे |
आप के शिष्य कृष्णदास मेघन ने आपश्री से प्रश्न पूछा “अगर जीव जीवन मे निष्फल होकर गंगा नदी मे आत्महत्या करे तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो शक्ति है ?” तब आचार्य चरण आज्ञा करते है “अगर सहज ही जीव की मृत्यु हो तो अवश्य मोक्ष मिलता है लेकिन अगर आत्महत्या करे तो सात जन्म तक दुर्गति होती है |“
यह संपूर्ण प्रसंग राणा व्यास सुन रहे थे | उन्होंने अंधेरे मे भी श्री महाप्रभुजी के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए और आप के श्री चरणों मे गिरकर जीवन की आपबीती सुनाई | तब श्री महाप्रभुजी ने उन्हे ज्ञान का अभिमान ना करने की आज्ञा की और सदा भगवान के श्री चरण मे रहना चाहिए |
उनकी भक्ति करनी चाहिए | ज्ञान और कर्म के पुरुषार्थ को त्यजकर धर्म के पुरुषार्थ करने की आज्ञा दी और चार श्लोक की रचना करके राणा व्यास को “चतु : शलोकी” ग्रंथ का दान दिया |