चतुःश्लोकी – षोडस ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी रचित षोडस ग्रंथ मे से एक चतुःश्लोकी ग्रंथ |

चतुःश्लोकी ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

गोधरा के राणा व्यास थोड़ा बहुत पढे हुए थे | उन्हे उनके ज्ञान का अभिमान था | छोटे मोटे पंडितों को शास्त्रार्थ मे हराकर अपने अहम का अनुभव करते | उन्होंने सोचा की अगर काशी के पंडितों को हराऊ तो मेरी ख्याति फेलेगी |

यह सोच कर काशी के पंडितों के साथ शास्त्रार्थ मे उतरे | वहा उनको बुरी तरह हार मिली | उनके अभिमान का भंग हुआ | अब उन्हे संसार मे रहने का मन नहीं रहा | सोचा की काशी मे गंगा नदी मे आत्महत्या करूंगा तो मोक्ष मिलेगा यह सोच कर गंगा नदी के तट पर अंधेरा होने की राह मे बैठे| तब उस समय श्री महाप्रभुजी अपने शिष्यों के साथ तट पर पधारे |

आप के शिष्य कृष्णदास मेघन ने आपश्री से प्रश्न पूछा “अगर जीव जीवन मे निष्फल होकर गंगा नदी मे आत्महत्या करे तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो शक्ति है ?” तब आचार्य चरण आज्ञा करते है “अगर सहज ही जीव की मृत्यु हो तो अवश्य मोक्ष मिलता है लेकिन अगर आत्महत्या करे तो सात जन्म तक दुर्गति होती है |“

यह संपूर्ण प्रसंग राणा व्यास सुन रहे थे | उन्होंने अंधेरे मे भी श्री महाप्रभुजी के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए और आप के श्री चरणों मे गिरकर जीवन की आपबीती सुनाई | तब श्री महाप्रभुजी ने उन्हे ज्ञान का अभिमान ना करने की आज्ञा की और सदा भगवान के श्री चरण मे रहना चाहिए |

उनकी भक्ति करनी चाहिए | ज्ञान और कर्म के पुरुषार्थ को त्यजकर धर्म के पुरुषार्थ करने की आज्ञा दी और चार श्लोक की रचना करके राणा व्यास को “चतु : शलोकी” ग्रंथ का दान दिया |

|| चतुःश्लोकी ||

सर्वदा सर्व भावेन, भजनीयो व्रजाधिपः ।
स्वस्यायमेव धर्मोहि, नान्यः कवापि कदाचन ॥१॥

एवं सदा स्म कर्तव्यं , स्वयमेव करिष्यति ।
प्रभुः सवॅ समर्थो हि, ततो निश्चिन्ततां व्रजेत ॥२॥

यदि श्री गोकुलाधीशो, धृतः सर्वात्मना हृदि ।
ततः किमपरं ब्रूहि, लोकिकै र्वैदिकैरपि ॥३॥

अतः सर्वात्मना शश्वद्, गोकुलेश्वर पादयोः ।
स्मरणं भजनं चापि, न त्याज्यामिति मे मतिः ॥४॥

॥इति श्री वल्लभाचार्यविरचितं चतुःश्लोकी सम्पूर्णम ॥

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