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फाल्गुन शुक्लपक्ष 11

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आमलकी (कुंज) एकादशी व्रतम्। कुंज एकादशी

गद्दल हरे साटन का

विशेष – आज कुंज एकादशी है. इसे आमलकी एकादशी भी कहा जाता है.

श्रीजी का सेवाक्रम – उत्सव होने के कारण श्रीजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को पूजन कर हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं.

आज पूरे दिन झारीजी में यमुनाजल भरा जाता है. आरती सभी समय (मंगला, राजभोग, संध्या-आरती व शयन) थाली में की जाती है.

मंगला दर्शन पश्चात प्रभु को चन्दन, आवंला, एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है.

साज – श्रृंगार दर्शन में कुंज के भाव की पिछवाई आती है जिसे ग्वाल समय बड़ा कर दिया जाता है.
प्रातः धरायी पिछवाई राजभोग में बड़ी कर (हटा) दी जाती है और सफ़ेद मलमल की सादी पिछवाई धरायी जाती है जिसके ऊपर उत्सव होने के कारण गुलाल, चन्दन से भारी खेल किया जाता है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफ़ेद बिछावट की जाती है.

वस्त्र व श्रृंगार –

आज नियम का मुकुट-काछनी का श्रृंगार धराया जाता है.
वस्त्र व श्रृंगार ऊपर वर्णित ही रहते हैं. चन्दन के पत्तों एवं गुलाब के पुष्पों की सज्जा वाला चौखटा पीठिका पर धराया जाता है. एवं श्रीमस्तक पर मीना का मुकुट को बड़ा करके पुष्पों का अद्भुत मुकुट धराया जाता हैं. सभी वस्त्रों पर अबीर, गुलाल आदि को छांटकर कलात्मक रूप से खेल किया जाता है. प्रभु के कपोल पर भी गुलाल, अबीर लगाये जाते हैं. अत्यधिक गुलाल खेल के कारण वस्त्र लाल प्रतीत होते हैं एवम् सर्व श्रृंगार रंगों से सरोबार हो जाते हैं और प्रभु की छटा अद्भुत प्रतीत होती है.

वर्ष में केवल आज श्रीजी को एक दिन में तीन विविध प्रकार के मुकुट धराये जाते हैं.
प्रातः श्रृंगार में स्वर्ण का मीनाकारी वाला मुकुट, राजभोग में पुष्प का मुकुट एवं संध्या-आरती में विविध पुष्पों का ही अन्य मुकुट प्रभु को धराया जाता है.

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से श्रीजी में डोलोत्सव की सामग्रियां सिद्ध होना प्रारंभ हो जाती है.

फाल्गुन शुक्ल दशमी से इनमें से कुछ सामग्रियां प्रतिदिन गोपीवल्लभ (ग्वाल) भोग में श्रीजी को अरोगायी जाती हैं और डोलोत्सव के दिन भी प्रभु को अरोगायी जायेंगी.
इस श्रृंखला में आज श्रीजी को गोपीवल्लभ (ग्वाल) भोग में मेवाबाटी अरोगायी जाती हैं.

इसके अतिरिक्त आज उत्सव के कारण प्रभु को दूधघर में सिद्ध की गयी केसर युक्त बासोंदी की हांडी भी अरोगायी जाती है.

राजभोग दर्शन

राजभोग समय श्रीजी के निज मंदिर में केले के वृक्षों, चन्दन व आशापाल के पत्तों, आम्र मंजरियों एवं गुलाब के पुष्पों से कुंज के भाव की साज-सज्जा की जाती है.

राजभोग में अनसखड़ी में दाख (किशमिश) का रायता अरोगाया जाता है.

प्रातः धराया प्रभु का मुकुट बदल कर पुष्प का अत्यन्त सुन्दर मुकुट धराया जाता है. इसके अतिरिक्त आज विशेष रूप से राजभोग समय जब गुलाल खेल के समय वेणुजी श्रीहस्त से फेंट (कमर) में धरायी जाती है जिससे श्रीजी अपने भक्तों पर दोनों हाथों से गुलाल उड़ाकर उन्हें रस-विभोर कर सके और व्रजभक्त गोपियाँ झपट कर उनकी वेणुजी ना चुरा सकें.

यद्यपि वेत्रजी ठाडे (खड़े) ही धरे जाते हैं जिससे प्रभु व्रजभक्तों को घेर सके.

श्री नवनीतप्रियाजी में राजभोग तक का सेवाक्रम अन्य दिनों की तुलना में कुछ जल्दी हो जाता है. अपने घर में राजभोग अरोगने के उपरांत श्री नवनीतप्रियाजी को बगीचे के रास्ते श्रीजी में पधराते हैं जहाँ प्रभु श्री लाड़ले-लाल श्रीजी के साथ कुंज में विराजित हो राजभोग के दर्शन देते हैं और गुलाल व अबीर से खेलते हैं.
पिछवाई को गुलाल से पूरा रंगा जाता है और उस पर अबीर से चिड़िया मांडी जाती है.

श्रीजी की दाढ़ी पर पांच बिंदी लगायी जाती है. प्रभु के सम्मुख चार पान के बीड़ा सिकोरी (स्वर्ण के जालीदार पात्र) में रखे जाते हैं.

आज गुलाल, अबीर का खेल अन्य दिनों की तुलना में अत्यन्त भारी होता है. वैष्णवजनों पर भी गुलाल पोटली भर कर उड़ाई जाती है.

राजभोग दर्शन के पश्चात श्री नवनीतप्रियाजी अपने घर पधार कर पुनः गुलाल खेलते हैं.

यहाँ श्री गोवर्धनधरण प्रभु दिन के अनोसर भोग में उत्सव भोग अरोगते हैं जो कि उत्थापन के शंखनाद पश्चात सराये जाते हैं.
उत्सव भोग में विशेष रूप से केशर-युक्त चन्द्रकला, मूँग की दाल के गुंजा, उड़द की दाल की कचौरी, दहीवड़ा, केशर-युक्त चांवल की खीर, दूधघर में सिद्ध मावे के पेड़ा-बरफी, दूधपूड़ी (मलाईपूड़ी), केसरी बासोंदी, जीरा मिश्रित दही, केसरी-सफेद मावे की गुंजिया, तले हुए बीज-चालनी के सूखे मेवा, विविध प्रकार के संदाना (आचार) के बटेरा, विविध प्रकार के फलफूल, शीतल आदि अरोगाये जाते हैं.

आज से चार दिन की सेवा चारों युथाधिपतियों की ओर से सेवा होती है. चारों स्वामिनीजी चारों दिशाओं में प्रभु को डोल झूलाती हैं अतः आज से राजभोग सम्मुख एवं शयन सम्मुख डोल के पद गाये जाते हैं. नंदालय, यमुनापुलिन, श्री गिरिराजजी एवं निकुंज…इन चार स्थानों पर प्रभु डोल झूलते हैं.

इस प्रकार आज से श्रीजी में निकुंज लीला का प्रारंभ हो जाता है. इसी कारण इस एकादशी को कुंज एकादशी कहा जाता है. व्रज के बारह वन एवं बारह उपवनों के भाव से वर्ष में केवल आज श्रीजी के निजमंदिर में कुंज बनाया जाता है.

आज से डोल तक श्रीजी में श्री गुसांईजी कृत अष्टपदी के कीर्तन के स्थान पर डोल के पद ही गाये जाते हैं.

संध्या-आरती में प्रभु का मुकुट पुनः बदल कर पुष्प का अत्यन्त सुन्दर मुकुट धराया जाता है.

श्री नवनीतप्रियाजी भी स्वर्ण के मुकुट को धराये श्रीजी की गोदी में विराजित होते हैं.

संध्या-आरती दर्शन के उपरांत श्रीकंठ के आभरण, दोनों काछनी, मुकुट, टोपी व पटका बड़े किये जाते हैं व चोवा के घेरदार वागा धराये जाते हैं. श्रीमस्तक पर गोल-पाग व लाल तनी के ऊपर सुनहरी लूम-तुर्रा धराये जाते हैं.
श्रीकंठ में छेड़ान के (छोटे) श्रृंगार धराये जाते हैं.
यदि सर्दी नहीं होवे तो प्रभु को शयन में पुष्प के आभरण धराये जा सकते हैं.

आज शयन सम्मुख भी मान के अथवा पोढवे के पद नहीं गाये जाते. शयन सम्मुख भी डोल के एवं गारी के पद ही गाये जाते हैं.
ऐसी भावना है कि प्रभु सारी रात कुंज में रसरूप होली खेलते हैं.
कई वैष्णव मंदिरों एवं हवेलियों में आज से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक प्रतिदिन शयन में भी श्री ठाकुरजी को गुलाल खेलायी जाती है और वैष्णवों पर भी गुलाल उड़ायी जाती है.

हिंडोरा की भांति कुंज एकादशी और डोल भी अत्यंत रहस्यलीला है.

Source : Shrinathji Temple Management
: facebook page : Shreenathji Nity darshan

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