वरुथिनी एकादशी व्रतम् । श्री वल्लभाचार्यजी (श्री महाप्रभुजी) को उत्सव (1535) | श्री वल्लभाब्द 548 को प्रारम्भः
जगद्गुरु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी (श्री महाप्रभुजी) का प्राकट्योत्सव
आज प्रत्येक द्वार के ऊपर रंगोली मांडी जाती है. हल्दी को गला कर द्वार के ऊपर लीपी जाती है एवं सूखने के पश्चात उसके ऊपर गुलाल, अबीर एवं कुंकुम आदि से कलात्मक रूप से कमल, पुष्प-लता, स्वास्तिक, चरण-चिन्ह आदि का चित्रांकन किया जाता है और अक्षत छांटते हैं. इसे बड़ी देहरी मांडना कहते हैं.
चरणचौकी, पड़घा, कुंजा, बंटा आदि सर्व साज जड़ाव स्वर्ण के धरे जाते हैं. तकिया आदि भी जड़ाऊ आते हैं. कमल के कामवाली पिछवाई धरायी जाती है. गेंद, चौगन, दीवला आदि सभी सोने के आते हैं.
टेरा (पर्दा) केसरी जन्माष्टमी वाले आते हैं.
आज मंगला से सायं तक ठोड़ के वारा में जलेबी टूक के टोकरा अरोगाये जाते हैं.
मंगला दर्शन पश्चात प्रभु को चन्दन, आवंला, एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है.
अभ्यंग के मध्य कीर्तन के छह पद नियम के गाये जाते हैं.
आज के दिन श्रीजी के निज मंदिर में विराजित श्री महाप्रभुजी के पादुकाजी को भी अभ्यंग कराया जाता है.
उपरना केसरी मलमल का
कीर्तन –मंगला दर्शन (राग : बिलावल)
आज बड़ों दरबार देख्यो नंदराय तेरो
आज श्रीजी को नियम के केसरी (अमरसी) मलमल के खुलेबन्ध के चाकदार वागा व श्वेत ठाडे वस्त्र धराये जाते हैं. वनमाला का दो जोड़ी का श्रृंगार धराया जाता है. हांस, हमेल, कठुला, त्रबल आदि धराये जाते हैं. श्रीमस्तक पर कुल्हे के ऊपर पांच मोरपंख की चन्द्रिका धरायी जाती है.
श्याम वस्त्र के ऊपर मोतियों की सज्जा वाला सुन्दर चौखटा प्रभु की पीठिका पर धराया जाता है.
साज – आज श्रीजी में केसरी रंग की मलमल की, उत्सव के कमल के काम वाली एवं रुपहली ज़री की तुईलैस की किनारी के हांशिया से सुसज्जित पिछवाई धरायी जाती है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफ़ेद बिछावट की जाती है.
वस्त्र – आज श्रीजी को केसरी मलमल के खुले बन्ध (तनी बाँध के धरावे) का चाकदार वागा सूथन, पटका चोली फूल वाले किनारी के धराये जाते हैं. सभी वस्त्र रुपहली ज़री की तुईलैस की किनारी से सुसज्जित होते हैं. ठाड़े वस्त्र श्वेत मलमल के धराये जाते हैं. श्वेत ठाड़े वस्त्र श्रीवल्लभ के यश के भाव से धराये जाते हैं.
श्रृंगार – आज प्रभु को वनमाला का (चरणारविन्द तक) भारी श्रृंगार धराया जाता है. माणक की प्रधानता एवं जड़ाव स्वर्ण के सर्व आभरण धराये जाते हैं.
नीचे पदक, ऊपर माला, दुलड़ा व हार उत्सववत धराये जाते हैं.
श्रीमस्तक पर केसरी कुल्हे के ऊपर सिरपैंच, पांच मोरपंख की मोर-चंद्रिका की जोड़ एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं. श्रीकर्ण में मकराकृति कुंडल धराये जाते हैं. बायीं ओर उत्सव की मोती की चोटी (शिखा) भी धरायी जाती है.
श्रीकंठ में कली,कस्तूरी आदि की माला आती हैं.आज श्रीजी को बघनखा धराया जाता हैं.
उत्सव का मोती का चौखटा पीठिका के ऊपर धराया जाता है.
श्वेत एवं गुलाबी पुष्पों की दो सुन्दर थागवाली कलात्मक वनमाला धरायी जाती हैं.
श्रीहस्त में पुष्पछड़ी, हीरा के वेणुजी एवं दो वेत्रजी धराये जाते हैं.
पट उत्सव का गोटी जड़ाऊ की व आरसी जड़ाऊ की आती है.
श्रीजी को गोपीवल्लभ (ग्वाल) भोग में विशेष रूप से केशरयुक्त जलेबी के टूक, दूधघर में सिद्ध की गयी केसर युक्त बासोंदी की हांडी व शाकघर में सिद्ध चार विविध प्रकार के फलों के मीठा का अरोगाये जाते हैं.
राजभोग में अनसखड़ी में दाख (किशमिश) का रायता, सखड़ी में केसरी पेठा, मीठी सेव, पांचभात (मेवा-भात, दही-भात, राई-भात, श्रीखंड-भात एवं वड़ी-भात) व घोला हुआ सतुवा अरोगाये जाते हैं.
राजभोग समय उत्सव भोग रखे जाते हैं जिनमें प्रभु को केशरयुक्त जलेबी टूक के टोकरा, दूधघर में सिद्ध मावे के पेड़ा-बरफी, दूधपूड़ी (मलाई पूड़ी), बासोंदी, जीरा मिश्रित दही, केसरी-सफेद मावे की गुंजिया, श्रीखंड-वड़ी, घी में तला हुआ बीज-चालनी का सूखा मेवा, विविध प्रकार के संदाना (आचार) के बटेरा, विविध प्रकार के फलफूल, शीतल आदि अरोगाये जाते हैं.
इसी प्रकार श्रीजी के निज मंदिर में विराजित श्री महाप्रभुजी की गादी को भी एक थाल में यही सब सामग्रियां भोग अरोगायी जाती हैं.
राजभोग सरे उपरान्त श्रीजी को उस्ताजी की बड़ी आरसी दिखायी जाती हैं फिर राजभोग दर्शन खुलते है और श्रीजी को तिलक, अक्षत किये जाते है, बीड़ा पधराये जाते हैं और मुठिया वार के चून की आरती की जाती है.
इस उपरान्त श्री महाप्रभुजी के पादुकाजी को भी मुठिया वार के चून की आरती की जाती है.
आज श्रीजी को नियम के केसरी मलमल के खुले बन्ध (तनी बाँध के धरावे) चाकदार वागा व श्वेत ठाडे वस्त्र धराये जाते हैं. वनमाला का दो जोड़ी का श्रृंगार धराया जाता है. हांस, हमेल, कठुला, त्रबल आदि धराये जाते हैं.
राजभोग दर्शन –
कीर्तन – (राग : सारंग)
घरघर ग्वाल देत हे हेरी |
बाजत ताल मृदंग बांसुरी ढ़ोल दमामा भेरी || 1 ||
लूटत झपटत खात मिठाई कहि न सकत कोऊ फेरी |
उनमद ग्वाल करत कोलाहल व्रजवनिता सब घेरी || 2 ||
ध्वजा पताका तोरनमाला सबै सिंगारी सेरी |
जय जय कृष्ण कहत ‘परमानंद’ प्रकट्यो कंस को वैरी || 3 ||
कीर्तन – (राग : सारंग)
केसरकी धोती पहेरे केसरी उपरना ओढ़े तिलक मुद्रा धर बैठे श्री लक्ष्मण भट्ट धाम |
जन्म धोस जान जान अद्भुत रूचि मान मान नखशिखकी शोभा ऊपर वारों कोटि काम || 1 ||
सुन्दरताई निकाई तेज प्रताप अतुल ताई आसपास युवतीजन करत है गुणगान |
‘पद्मनाभ’ प्रभु विलोक गिरिवरधर वागधीस यह अवसर जे हुते ते महा भाग्यवान || 2 ||
कीर्तन – (राग : सारंग)
आज वधाई को दिन नीको |
नंदघरनी जसुमति जायौ है लाल भामतो जीकौ || 1 ||
पांच शब्द बाजे बाजत घरघरतें आयो टीको |
मंगल कलश लीये व्रज सुंदरी ग्वाल बनावत छीको || 2 ||
देत असीस सकल गोपीजन चिरजीयो कोटि वरीसो |
‘परमानंददास’को ठाकुर गोप भेष जगदीशो || 3 ||
Seva kram Source : Shrinathji Temple Management
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