यमुनाष्टकम् – षोडश ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी रचित षोडश ग्रंथ का प्रथम ग्रंथ यमुनाष्टकम् ग्रंथ |

यमुनाष्टकम् ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

रचना प्रसंग

वी. सं. १५४९ मे श्री महाप्रभुजी केवल १४ वर्ष की आयु मे जीव के उद्धार हेतु भारत परिक्रमा करने पधारे तब ब्रिज भूमि पधारे वहा गोकुल मे पधारे | आप के साथ आप के शिष्य श्री दमलाजी और श्री कृष्णदास मेघन भी आप के साथ पधारे हते | श्री महाप्रभुजी विचारमग्न थे की पुरानो मे जिन गोकुल,गोविंद घाट और ठकुरानी घाट का वर्णन है एसे अवशेष चिन्ह तो कही नहीं दिख रहे थे |

तब श्री यमुनाजी के जल मे दूर एक स्वरूप के दर्शन श्री महाप्रभुजी को भए | अलौकिक श्याम वर्ण युवती धीरे धीरे श्री चरणों की पायल के मधुर स्वर के साथ नजदीक पधार रहे है | मुकुट काछनी के शृंगार धारण किए हुए है | श्री मुख पर दिव्य अलौकिक तेज है | श्री वल्लभ बिना पलके जुकाए दर्शन कर रहे थे | दोनों श्री हस्त जोड़ के नमन करते है और आपश्री के श्री मुख से स्वर प्रकट होता है “नमामि यमुना महम” और साक्षात श्री यमुनाजी श्री महाप्रभुजी को दर्शन देते है |

जैसे जैसे श्री यमुनाजी नजदीक पधार रही है वैसे वैसे श्री महाप्रभुजी आप के गुण के वर्णन करते है और कुछ इस तरह श्री यमूनाष्टक की रचना श्री महाप्रभुजी द्वारा होती है | यह दिन “ठकरानी तीज” है |

૮૪ वैष्णव को ग्रंथ का ज्ञान : 

परमानन्द दासजी अष्टछाप कवि जब श्री महाप्रभुजी की शरणमे आकार वैष्णव बने । तब उनके मन में व्रज और प्रभु लीला का ताप को देखकर श्री महाप्रभुजी ने उन्हें अपने साथ ले व्रज मे पधारे । गोकुल में श्री नवनीत प्रियाजी के दर्शन के बाद श्री महाप्रभुजी परमानंद दासजी और अन्य वैष्णवों के साथ यमुनाजी के ठकुरानी घाट पर पहुंचे।

वहाँ श्री आचार्यजी स्वयं स्नान करके छोकर वृक्ष के नीचे अपने बैठक पर बिराजे। और परमानंददास सहित सभी वैष्णव स्नान करके प्रभु के पास बैठे । तब श्री आचार्यजी ने परमानंद दासजी को श्रीयमुनाष्टकम् का पाठ शिखाया | परमानंद दासजी के हृदय में श्रीयमुनाजी का स्वरूप की सफुरणा हुई | इस कारण से उन्होंने श्री यमुनाजी के यश का वरणन करते हुए पद की रचना की :-

राग रामकली : श्री यमुनाजी ! वह प्रसाद हो पाउ || तिहारे निकट रहो निसबा सर रामकृष्ण गुण गाऊ || १ || मज्जन करी विमल जल पावन कलह बहाऊ || तिहारी कृपा ते भानुकी तनया हरी पद प्रीत बढ़ाऊ ||२|| विनंती करो यह वर मांगों अधमसंग बिसराऊ || ‘परमानंद’ चारी फल दाता मदनगोपाल लदाऊ ||३||

राग रामकली : श्री यमुनाजी दीन जानि मोही दीजे || नंदकों लाल सदावर मांगों गोपिनकी दासी मोही कीजे ||१|| तुम हो परं उदार कृपानिधि चरण शरण सुखकारी | तिहारे बस लाडिली वर्तत, निर्तत गिरिवरधारी ||२|| श्रमजल भरी न्हात, व्रजसुंदिर, जलक्रीड़ा सुखकारी || मनहु तारा मध्य चंद बिराजत भरी भरी छीरकत नारी ||३|| रानी जु के पाई परो नित्य गृहकारज सब कीजे || ‘परमानंददास’ दासी व्हे, चरण कमल सुख दीजे ||४||

राग रामकली : कालिंदी-कल्मष हरनी | रवितनया यम अनुजा श्यामा सुंदरी गोविंद धरनी ||१|| जय श्रीकृष्णवल्लभा पतितनको पावन भव तरनी | शरणागत को देती अभय पद, जननी तजत जैसे सुत की करनी ||२|| शीतल मंद सुगंध सुधानिधि, धारा धरी वधु उतरी धरनी | परमानंद प्रभु पदम पावनी, जस जग सांखि निगम नित बरनि ||३||

महात्म्य

श्री यमुनाजी न केवल जीव के स्वभाव मे विजय दिलाते साथ साथ अगर प्रभु जीव पर कृपा जल्दी से नहीं करते तब प्रभु के स्वभाव को भी जीत के जीव को प्रभु की शरण मे लेजाते है |
किशोरी बाई नित्य यमुनाष्टक के चतुर्थ श्लोक के नित्य संपूर्ण दृढ़ भाव से पाठ करती थी उनको श्री यमुनाजी ने अलौकिक फल स्वरूप स्वयं उनके घर पधारवे के प्रसंग को हमने जाना है |

सेवा के समय

ठाकुरजी की सेवा मे जब हम जारीजी की सेवा पहुचे तब हमे श्री यमूनाष्टक के पाठ करने चाहिए | अगर समय का प्रश्न है तो “विशुद्ध मथुरा तटे सकल गोप गोपी वृते कृपा जलधी संश्रिते मम मन : सुखम भावय” श्लोक का पठन करना चाहिए |

यमूनाष्टक ग्रंथ हिन्दी अर्थ के साथ नीचे उपलब्ध ई-बुक पर है |

Yamunashtak with hindi meaning bhav arth – pdf

श्री यमुनाष्टकम्

नमामि यमुनामहं, सकलसिद्धिहेतुं मुदा |
मुरारि पद पंकज- स्फुरदमन्दरेणुत्कटाम् ||
तटस्थ नव कानन- प्रकटमोद पुष्पाम्बुना |
सुरासुरसुपूजित- स्मरपितुः श्रियं बिभ्रतीम् ॥१॥

कलिन्द गिरि मस्तके, पतदमन्दपूरोज्ज्वला |
विलासगमनोल्लसत्-प्रकट गण्ड शैलोन्नता ||
सघोषगतिदन्तुरा, समधिरूढदोलोत्तमा |
मुकुन्दरतिवर्द्धिनी, जयति पद्मबन्धोः सुता ॥२॥

भुवं भुवनपावनी – मधिगतामनेकस्वनैः |
प्रियाभिरिव सेवितां, शुकमयूरहंसादिभिः ||
तरंगभुजकंकण- प्रकटमुक्तिका वालुका |
नितन्बतटसुन्दरीं, नमत कृष्णतुर्यप्रियाम ॥३॥

अनन्तगुण भूषिते, शिवविरंचिदेवस्तुते |
घनाघननिभे सदा, ध्रुवपराशराभीष्टदे ।|
विशुद्ध मथुरातटे, सकलगोपगोपीवृते |
कृपाजलधिसंश्रिते, मम मनः सुखं भावय ॥४॥

यया चरणपद्मजा, मुररिपोः प्रियं भावुका |
समागमनतोभवत्, सकलसिद्धिदा सेवताम् ||
तया सदशतामियात्, कमलजा सपत्नीवयत् |
हरिप्रियकलिन्दया, मनसि मे सदा स्थीयताम् ॥५॥

नमोस्तु यमुने सदा, तव चरित्र मत्यद्भुतं |
न जातु यमयातना, भवति ते पयः पानतः ||
यमोपि भगिनीसुतान् , कथमुहन्ति दुष्टानपि |
प्रियो भवति सेवनात्, तव हरेर्यथा गोपिकाः ॥६॥

ममास्तु तव सन्निधौ, तनुनवत्वमेतावता |
न दुर्लभतमारति – र्मुररिपौ मुकुन्दप्रिये ||
अतोस्तु तव लालना, सुरधुनी परं संगमात् |
त्तवैव भुवि कीर्तिता, न तु कदापि पुष्टिस्थितैः ॥७॥

स्तुतिं तव करोति कः, कमलजासपत्नि प्रिये |
हरेर्यदनुसेवया, भवति सौख्य मामोक्षतः ||
इयं तव कथाधिका, सकल गोपिका संगम- |
स्मरश्रमजलाणुभिः, सकल गात्रजैः संगमः ॥८॥

तवाष्टकमिदं मुदा, पठति सुरसूते सदा |
समस्तदुरितक्षयो, भवति वै मुकुन्दे रतिः ||
तया सकलसिद्धयो, मुररिपुश्च सन्तुष्यति |
स्वभावविजयो भवेत्, वदति वल्लभः श्री हरेः ॥९॥

॥ इति श्रीमद वल्लभाचार्य विरचितं श्री यमुनाष्टकं स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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