श्री कृष्णाश्रय: – षोडस ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी रचित षोडस ग्रंथ मे से एक श्री कृष्णाश्रय: ग्रंथ |

श्री कृष्णाश्रय: ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

पंजाब राज्य के लाहोर शहर मे एक ब्राम्हण रहते थे उनके पुत्र का नाम बुलराम था | उनकी अटक मिश्र थी | लोग बुलराम को बुलामिश्र कहके पुकारते | उनके पिता ने उन्हे पढ़ने के लिए एक पंडित के वहा भेजा |

वहा उनसे ५ रुपए मांगे तो बुलामिश्र वापिस लौट आए | फिर उन्होंने पिता को काशी जाकर पढ़ने की बात की तब उनके पिता ने बुलामिश्र से कहा अकेले बाहर जाने की हिम्मत नहीं और काशी पढ़ने जाना है | इस बात का बुलामिश्र को बहुत दुख हुआ और घर छोड़कर जैसे तैसे काशी पहुचे | काशी पहुचकर पंडित को पढ़ाने के लिए मना लिया |

पंडित ने बुलामिश्र को तीन शाल तक पढ़ाने की कोशिश की पर बुलामिश्र कुछ पढ़ नहीं पाए | पंडित ने तंग आकर बुलामिश्र को कहा की जहा जाना है जाव | बुलामिश्र दुखी हो कर जीवन से थक कर गंगा नदी के तट पर आत्महत्या का निर्णय ले कर तीन दिन तक अन्न जल त्याग कर बैठे |

तब नदी मे से आवाज आई “मे सरस्वती हु , भगवान की ही इच्छा नहीं है इस लिए मे कुछ नहीं कर शक्ति इसलिए तुम आत्महत्या विचार त्याग दो | बुलामिश्र को भी लगा की भगवान की ही इच्छा नहीं है की उनको विध्या मिले तो इसमे सरस्वतीजी क्या कर शक्ति है |

अब मे प्रभु की इच्छा बदलूँगा | और नदी के तट पर विष्णु नाम का जाप करने लगे | तीन दिन पश्चात भगवान विष्णु ने उनको चतुर्भुज स्वरूप से दर्शन दिए और आज्ञा की तुम अड़ेल श्री महाप्रभुजी के पास जाओ वहा तुम्हें विध्या प्राप्त होगी |

बुलामिश्र फिर अड़ेल गए और श्री महाप्रभुजी के दर्शन किए | तब श्री महाप्रभुजी ने उन्हे सामने से बुलाया “आप भाग्यवान है की प्रभु ने आपको दर्शन दिए, अब भी आपको विध्या प्राप्त करनी है ?” तब बुलामिश्र ने कहा “नहीं आपके दर्शन हुए अब विध्या की इच्छा नहीं है परंतु प्रभु के दर्शन से मन नहीं भरा इसलिए मुजे अब विध्या नहीं भक्ति प्राप्त करनी है |”

तब श्री महाप्रभुजी ने उनको यमुना स्नान करवाके ब्रम्ह संबंध की दीक्षा दी और ग्यारह श्लोक का ग्रंथ “श्री कृष्णाश्रय ग्रंथ“ की रचना करके उनको दान किया और सिखाया की कलियुग मे प्रभु प्राप्ति के सारे मार्ग भ्रष्ट हो चुके है | तब केवल श्री कृष्ण का आश्रय ही जीव का उद्धार करवा शकता है |

श्रीकृष्णाश्रय:

सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खल धर्मिणि ।
पाष्ण्ड प्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम ॥१॥

म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैक निलयेषु च ।
सत्पीडा व्यग्र लोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥२ ॥

गंगादि तीर्थ वर्येषु दुष्टैरेवा वृते ष्विह ।
तिरोहिता धिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥३॥

अहंकार विमुढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु ।
लाभ पूजार्थ यत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥४॥

अपरिज्ञान नष्टेषु मन्त्रेष्वव्रत योगिषु ।
तिरोहितार्थ देवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥५॥

नानावाद विनष्टेषु सर्व कर्म व्रतादिषु ।
पाषंडेक प्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥६॥

अजामिला दिदोषाणां नाशको नुभवे स्थितः ।
ज्ञापिताखिल माहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम ॥७||

प्राकृताः सकला देवा गणितानन्दकं बृहत ।
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मात कृष्ण एव गतिर्मम ॥८॥

विवेक धैर्य भक्त्यादि रहितस्य विशेषतः ।
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम ॥९॥

सर्व सामर्थ्य सहितः सर्वत्रैवा खिलाथॅकृत ।
शरणस्थ समुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम ॥१०॥

कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेत कृष्ण सन्निधौ ।
तस्याश्रयो भवेत कृष्ण इति श्री वल्लभोब्रवीत ॥११॥

॥ इति श्रीमद् वल्लभाचार्यविरचितः कृष्णाश्रय स्तोत्रं सम्पूर्णः ॥

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