भक्तिवर्धिनी – षोडश ग्रंथ 

श्री वल्लभाचार्यजी रचित षोडश ग्रंथ मे से एक ग्रंथ : भक्तिवर्धिनी ग्रंथ |

भक्तिवर्धिनी ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

पुरूषोत्तम जोशी गुजरात में रहते थे। उसी काल में महाप्रभुजी गुजरात पधारे। पुरूषोत्तम जोशी ने आपश्री के दर्शन किए | तब पुरूषोत्तम जोशी ने श्री आचार्य जी को प्रणाम किया और पूछा, महाराज! कर्ममार्ग बड़ा है या ज्ञानमार्ग बड़ा है?
तब श्री आचार्य जी ने कहा, जो भी मार्ग उसके मन में आये, जिसमें उसकी आस्था हो, वह मार्ग बड़ा है और उससे भी बड़ा है भक्तिमार्ग। जिसमें जीव कृतार्थ होता है | और कृतार्थ ज्ञान और कर्म के मार्ग से कठिनाई से होता है।
यह किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता | क्योंकि कष्टसाध्य है | इस काल में शरीर को कष्ट नहीं दिया जाता । यदि कोई शरीर का कष्ट सह लेता है तो मन एक स्थान पर नहीं रहता। इसलिए, भक्तिमार्ग जीव कृतार्थ होता है। दूसरा कोई आशय नहीं है |
तब पुरूषोत्तम जोशी ने कहा कि महाराज! भक्ति का स्वरूप क्या है? कृपा करके बताइए | श्रीआचार्यजी कहते है “यदि हम भक्ति के स्वरूप का वर्णन करें तो उसका पार नहीं है, परन्तु तुमसे कुछ कहता हूँ | तब ‘भक्तिवर्धिनी‘। ग्रन्थ की रचना करके पुरूषोत्तम जोशी को ग्यारह श्लोक सुनाये, क्योंकि वे एक उत्कृष्ट अधिकारी हैं।
जिससे उनको सारा ज्ञान हो गया। तब उसने श्री आचार्य जी से विनती करते हुए निवेदन किया कि महाराज! इतने दिनों तक हम कर्ममार्ग में बने रहे लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. वृथा जन्म खोया । अब आप हमे शरण मे लो । अब आप आज्ञा करो वैसे करे।
तब श्री आचार्य जी ने द्रढ प्रीति की ओर देखते हुए नाम सुनाके ब्रह्मसंबम कराया और अपने मस्तक एवं ह्रदय मे चरण धरे और कहते हैं कि भक्तिमार्ग की स्फुरणा होगी। कुछ इसी तरह से महाप्रभुजी ने गदाधरदास वैष्णव को भी “भक्तिवर्धिनी” ग्रंथ का अध्ययन करवाया |

|| भक्तिवर्धिनी ||

यथा भक्तिः प्रवृद्धा स्यात् तथोपायो निरूप्यते ।।

बीजभावे दृढे तु स्यात् त्यागात् श्रवण-कीर्तनात् ।।१।।

बीज-दाढयं-प्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः ।।

अव्यावृत्तो भजेत् कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः ।।२।।

व्यावृत्तोऽपि हरौ  चित्तं श्रवणादी न्यसेत् सदा ॥

ततः प्रेम तथासक्तिः’ व्यसनं च यदा भवेत् ।।३।।

बीजं तद् उच्यते शास्त्रे दृढं यन् नापि नश्यति ।।

स्नेहाद् रागविनाशः स्याद् आसक्त्या स्याद् गृहारुचिः ॥४।

गृहस्थानां बाधकत्वम् अनात्मत्वं च भासते ।।

यदास्याद् व्यसनं कृष्णे कृतार्थ: स्यात् तदैव हि ।।५।।

तादृशस्यापि सततं गेह-स्थानं विनाशकम् ।। 

त्यागं कृत्वा यतेद् यस्तु तदर्थार्थक-मानसः ।।६।। 

लभते सुदृढां भक्तिं सर्वतोऽप्यधिकां पराम् ।।

 त्यागे वाधक-भूयस्त्वं ‘दुःसंसर्गात् तथान्नतः ।।७।।

अतः स्थेयं हरिस्थाने तदीयैः सह तत्परैः ।। 

अदूरे  विप्रकर्षे वा यथा चित्तं न दुष्यति।।८।।

सेवायां वा कथायां वा यस्यासक्तिर् दृढा भवेत् ।। 

यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर् मम।।९।।

बाध-सम्भावनायान्तु नैकान्ते वास इष्यते ।। 

हरिस् तु सर्वतो रक्षां करिष्यति न संशयः ।।१०।।

इत्येवं भगवच्-छास्त्रं गूढतत्त्वं निरूपितम् ।।

 य एतत् समधीयीत तस्यापि स्याद् दृढा रतिः ।।११।। 

।॥ इति श्रीवल्लभाचार्यविरचिता भक्तिवर्धिकी सम्पूर्णा ।।

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