सूरदास अष्ट छाप कवि

Surdas ji Short information

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श्रीनाथजी के अष्ट सखा , अष्टछाप कवि श्री सूरदास जी का जीवन परिचय |

दिल्ली सहर के पास छोटासा गाव सिहि । इस गाव मे एक सारस्वत ब्राम्हण का परिवार था | उनके वहा सं. १५३५ वैशाख सूद ५ : श्री महाप्रभुजीके प्राकट्य नौमे दीन, चौथे पुत्र का जन्म हुआ । पुत्र का मुख देख पिता दुखी हुए क्योंकि पुत्र नेत्रहीन हुआ | सोचने लगे एसे पुत्र का ध्यान जिंदगी भर कोन रखेगा |

जब वह नेत्रहीन बालक ६ साल के हुए उस समय एक दिन राजा ने उस ब्रामहन को दो सोनामहोर दी | ब्राम्हण खुश हो कर घर लौटा सोचा सालभर का राशन आजाएगा | घर मे कुछ खाने के लिए नहीं था। रात को सोनामहोर को पोटली मे बांधकर घर के कोने मे रखा । आधी रात को चूहे आकर पोटली घसीट कर ले गए।

सुबह उठकर देखा तो पोटली गायब | घर मे सब दुखी हो गए | सोचने लगे ज्यों त्यो कुछ अच्छे दीन आए थे पर जबसे ये अभागी पुत्र हुआ है सब सुख चैन चला गया है। उसपर आक्षेप लगने लगे उस बालक ने कहा मे अभी बतादु की पोटली कहा है पर, आपको मुजे एक वचन देना होगा की, पोटली मिलने पर आपको मुजे घर से जाने की अनुमति देनी पड़ेगी |

घर वाले खुश हो गए । सोचने लगे हमे सोनामहोर से मतलब है | यह अभागी नेत्रहीन बालक वैसे भी कोई काम का नहीं है। नेत्रहीन बालक ने कहा आपकी पोटली घर के छत पर एक छेद है उसीमे है। उसके पिता देखने गए और सचमे वही से निकले। अब घरवालों को बालक से मोह हुआ सोचने लगे इसे दृष्टि नहीं है परंतु दिव्य दृष्टि है। सब उन्हे घर से न जाने के लिए रोकने लगे परंतू वह बालक घर से निकल गया।

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कुछ दूर गए वहा एक वृक्ष के नीचे बैठे।उसी समय उस गाव का मुखी अपनी खोई हुई गाय ढूँढने निकला था | उस बालक ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसकी गाय खोजके दी। जमीनदार ने खुस होकर उस बालक की इच्छा जानकार एक कुटीर बनाके दी और काम करने के लिए एक नौकर रखा। बालक कुटीर मे रहकर भजन करने लगा।

उसके चमत्कार की बात धीरे धीरे सबको पता चलने लगी | सभी लोग उनके पास अपना दुख लेकर आने लगे उनकी महिमा बढ़ने लगी। कुटीर से बड़ा घर बन गया | सभी जगह प्रचलित हो गए। उनके सुर की वाहवाई होने लगी। कई लोग उनके शिष्य बने उनकी कंठी पहनी |

अब वह बालक “सुर स्वामि” के नामसे प्रचलित हो गए । ६ साल से १८ तक सुर स्वामि वही रहे। अचानक एक रात उनको बैराग आया। यह मे क्या कर रहा हु, निकला था प्रभु को ढूँढने और उनहिकी माया मे फस गया। एक सेवक के द्वारा माता पिता को बुलाया और घर संपती वैभव सब माता पिता को देकर वहा से पहेरे कपड़े निकल गए।

मथुरामे  विश्राम घाट आए | वहा सोचने लगे अगर बस्ती के नजदीक रहूँगा तो यहा भी वही होगा | मे प्रभुका यश गाने निकला हु। इसलिए मथुरा और आग्रा के बीचमे रॉनकता गाव मे गौ घाट आके बसे । वहा रोज रात भजन कीर्तन होते। यहा भी लोग दूर दूर से आने लगे। सुरस्वामि जी की प्रसिद्धि का डंका यहा भी बजने लगा । 

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गौ घाट भी एक यात्रा का स्थान हो गया। सुरस्वामि जी सर कूटने लगे की प्रभुकी माया मेरा पीछा क्यू नहीं छोड़ती अबतों प्रभु सामने से पधारे तो ही मेरा उद्धार हो सकता है।

सुर स्वामि की इच्छा पूरी हुई और एक दीन श्री महाप्रभुजी ब्रिजमे पधारे तब गौ घाट बिराजे | सुरस्वामिकों ज्ञात हुआ की श्री वल्लभाचार्य जी पधारे है। जिन्होंने बड़े बड़े मायावादिको हराया है ।

सुरस्वामि दर्शन करने आए तब श्री वल्लभने आज्ञा की कुछ भगवद लीला गाओ | सुरस्वामिने पद गाया |

“हो सब पतितन को नायक” 

श्री महाप्रभुजीने आज्ञा की ..जब से हम प्रभु से दूर हुए तब से हम सब पतित ही है। अपने दुख को लेकर रोओ मत प्रभु इसे प्रसन्न नहीं होंगे। उनकीलीला गुणगान गाओ और कुछ भगवद यश का गान करो तभी प्रभु प्रसन्न होंगे। तब सुर स्वामि बोले प्रभु मे भगवद लीला समजता नहीं हु ।

तब श्री महाप्रभुजीने उनको ब्रम्ह संबंध कराया और अब “सुरस्वामि सूरदास हुए। फिर श्री महाप्रभुजीने  श्रीमद भागवत के दशम स्कन्ध का सारांश सुरदासजिकों सुनाया और प्रभु की लीला सुरदासजी के अंतर मे स्थापित कि।

श्री सुरदासजी ने फिर भगवद लीला का अद्भुत पद की रचना करके सुनाया | अपने सारे सेवाको को श्री महाप्रभुजीके सन्मुख किए। फिर श्री महाप्रभुजी के साथ ब्रिजमे गोकुल में आकर श्री नवनीत प्रियाजी के दर्शन किए।

फिर गोपालपुर आकर श्रीनाथजी के दर्शन किए और एक से एक उतमोत्तम पदों की रचना करके प्रभु के सनमुख गाने लगे। प्रभु भी उनके कीर्तन से अति प्रसन्न होते।

Surdas ji at Parasoli Chandra sarovar

सुरदासजि पारासोली मे चंद्रसरोवर के पास कुटीर बनाकर रहने लगे | सूरदासजी का योगदान केवल पुष्टिमार्ग के हवेली संगीत मे ही नहीं परंतु समग्र भारत के हिन्दी साहित्य मे सूरदासजी का अद्वितीय योगदान रहा है |

यू कहे की हिन्दी साहित्य के एक मूलभूत आधार स्तम्भ रहे है | उन्होंने  कुछ सवा लाख पदों की रचना की है | इस कारण से उनको “सुर सागर” की पदवी मिली है । कई साल तक श्री सुरदासजिने श्रीनाथजी की सेवा मे पद गाए।

श्री गोवर्धननाथजी के अंतरंग सखा के रूप मे जीवन जिया है | श्री कृष्ण उनको विभिन्न अनुभूति कराते , सहानुभाव देते | कई बार सूरदासजी के अधूरे पदों को साक्षात प्रभु श्री कृष्ण ने पूरा किया है | इसी कारण उन पदों मे “सुर श्याम” की छाप है | आज भी हम पदों मे यह छाप के दर्शन कर शकते है | उनपर सदा श्री गोवर्धनधर एवं श्री महाप्रभुजी की कृपा बरसी है | 

शूर श्याम के पद
देखेरी हरी नंगम नंगा

एक अद्भुत रोचक प्रसंग है.. जब सुरदासजी गोकुल मे श्री नवनीत प्रियाजी की सेवा मे दो तीन दिवस से थे | उन पर एसी कृपा थी की प्रभुको जिसभी रंग के वस्त्र या शृंगार धराए जाते बिल्कुल उसी रंग के अनुकूल पदों का गायन करते।

एक दिवस श्री गिरधरजीको श्री बलकृष्णजी श्री गोविंदरायजी एवं श्री गोकुलनाथजी ने कहा कल प्रभुको जो भी वस्त्र या शृंगार किए जाए वह सुरदासजी से गुप्त रखे जाए और फिर दूसरे दीन प्रभु को कोई वस्त्र धराए नहीं गए और सुरदासजी को ज्ञात नहीं था। जब सुरदासजि आए और उन्हे दर्शन हुए | तब उन्हने पद की रचना की

“देखेरी हरी नंगम नंगा”

एसी अद्भुत कृपा उनपर थी।

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वी.सं.  1540 (इस. 1583) के आरंभ मे ही 50 साल के नंददासजी के देह को छोड़े अभी कुछ ही दिन हुए थे की श्री सूरदासजी ने भगवदकृपा से जाना की अब उनका भूतल त्यागने का समय निकट आ गया है |

उन्होंने सोचा की “मेने तो मेरे मन मे सवा लाख कीर्तन की रचना का संकल्प लिया है , और अभी तो मात्र एक लाख कीर्तन की ही रचना हुई है | अब ! क्या करू ? जल्दी से दूसरे २५००० कीर्तन की रचना हो जाए | फिर देह छूटे तो अच्छा” |

उसी समय गोवर्धनधरण उनके समक्ष प्रकट हुए | और मीठे स्वर मे बोले “आपके सवालाख कीर्तन का मनोरथ तो पूर्ण हो चुका है | आपके पुस्तक पुनः एक बार चकाशे“| तुरंत सूरदासजी ने एक वैष्णव को बुलाया और कीर्तन के सभी पुस्तक चकाशने को कहा |

वह वैष्णव सूरदासजी के कीर्तन की नोंध रखते थे | पुस्तक देख के वैष्णव अचरज मे पड गए | “बाबा, सभी प्रकार की लीला के पदों के मध्य “शूरश्याम” की छाप से कई कीर्तन पुस्तक मे है | जो कल तक नहीं थे | इसे कीर्तन हजारों संख्या मे है (२५०००)| मानने मे आए एसी बात नहीं है “|

यह बात आप नहीं समज पाओगे, ठीक है अब आप बहार जाके बैठे | ” वैष्णव के बहार जाते ही सूरदासजी ने श्रीनाथजी को दंडवत प्रणाम किए और कहा  “गोपाल !आपकी कृपा से हमारा मनोरथ पूर्ण हुआ है | अब आज्ञा करो वैसे करू“|

सूरदासजी आपतो हमारी गोलोकधाम की नित्यलीला के सहभागी है | भूतल पर अब आपका कार्य पूर्ण हुआ है | जल्द से जल्द नित्य लीला मे पधारो | कृष्णदास और नंददास तो आ गए है |अब कुंभनदास एवं परमानंददास को हम आज्ञा दे रहे है ” कहकर श्रीनाथजी अंतर्ध्यान हो गए |

सूरदासजी ने तैयारी आरंभ कर दी | सूरदासजी कुल चार नाम है | महाप्रभुजी उनको “सुर” कहते | गुसाइजी “सूरदास” कहते | उनका तीसरा नाम ‘सुरजदास‘ है |

साक्षात श्री स्वामीनिजी श्री राधाजी ने सूरदास जी नाम से पदों की रचना की है |  वहा “सुरजदास” की छाप से सात हजार पदों की रचना श्री स्वामीनिजी ने की है | अंत मे श्री कृष्ण ने स्वयं “शूर श्याम” की छाप से  पचिस हजार पदों की रचना की है |

        जब श्री सुरदासजिका भूतल से नित्य लीला में पधारने का समय हुआ | तब वह परासोली में अपनी कुटीर के पास श्रीजी मंदिर की ध्वजा का दर्शन करते हुए लेटे हुए थे। श्री गुसाईजी श्रीजी की शृंगार सेवा मे थे |

उन्होंने देखा की सुरदासजी कीर्तन गाने नहीं आए और फिर आपको ज्ञात हो गया की सुरदासजी का समय हो चला है | तब आपश्री दूसरे भगवदीय वैष्णव कुंभनदास,चतुर्भुज दास, गोविंददास  वैष्णवन को लेकर चंद्र सरोवर पधारे | गुसाई ने  दूसरे वैष्णवों से कहा की…

“पुष्टिमार्ग का जहाज जा रहा है जीसे जो भी लेना हो लेलों।” 

जब वैष्णवन ने पूछा की आपने श्री महाप्रभुजी के लिए कोई पद की रचना नहीं की ? तब सूरदासजी ने कहा की 

“न्यारों देखतों तो न्यारों गातों”

फिर श्री सुरदासजी ने

द्रढ इन चरणन केरो भरोसों

पद का गायन किया। सबसे छोटे चतुर्भुजदासजी ने कई सारे प्रश्न पूछे | तब सूरदासजी ने सभी प्रश्नों का उत्तर कीर्तन के रूप मे दिया | सूरदासजी चंद्र सरोवर पारसोली से नित्य लीला धाम मे पधारे | आज भी वहा उनकी समाधि है | चंद्र सरोवर ही गिरीराजजी के मुख्य अष्ट द्वार मे से एक है |

सूरदासजी समाधि चंद्र सरोवर , सूरदासजी नित्य लीला द्वार , गिरीराजजी के अष्ट द्वार

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