शिक्षा श्र्लोकी

महाप्रभुजी रचित शिक्षा श्र्लोकी ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी आसूर व्यामोह लीला 

विक्रम संवत 1587 में श्री ठाकोरजी ने श्री महाप्रभुजी को अडेल में तीसरी बार भूतल त्याग की आज्ञा दी। श्री महाप्रभुजी ने ठाकोरजी की आज्ञा को शीरोधार्य करते हुए गृहस्थाश्रम का त्याग किया और त्रिदंड संन्यास धारण किया।

मौन धारण किया। 39 दिन संन्यास के बाद 40वें दिन गंगाजी के हनुमान घाट पर श्री गुसाईजी और श्री गोपीनाथजी  महाप्रभुजी के पास आए। महाप्रभुजी मौन थे। महाप्रभुजी ने उन्हें अंतिम उपदेश के रूप में ‘सार्धत्र’ अर्थात साढ़े तीन श्लोक रेती पर लिखे।

जो ‘शिक्षा श्र्लोकी ’ के रूप में जाने जाते हैं।

शिक्षा श्र्लोकी

यदा बहिर्मुखा यूयं भविष्यथ कथंचन।
तदा कालप्रवाहस्था देहचित्तादयोऽप्युत।।1।।
सर्वथा भक्षयिष्यन्ति युष्मानिति मतिर्मम।
न लौकिकः प्रभुः कृष्णो मनुते नैव लौकिकम् ।।2।।

तब इस समय स्वयं श्रीनाथजी प्रकट वहा पर हुए | तब श्री श्रीनाथजी को देखकर तीसरे श्लोक की रचना की।

भावस्तत्राप्य स्मदीयः सर्वस्वश्चैहिकश्च सः।
परलोकश्च तेनायं सर्वभावेन सर्वथा ।।3।।
सेव्यः स एव गोपीशो विधास्यत्यखिलं हि नः।।31/2।।

भावार्थ :

जब किसी भी प्रकार से तुम (प्रभु सिवाय अन्य विषयों में चित्त रख कर) बहिर्मुख होगे तो काल के प्रवाह में रहे हुए देह-चित्तादि भी सर्व प्रकार से तुम्हारा भक्षण कर जायेंगे, ऐसी मेरी मति है।

श्रीकृष्ण लौकिक नहीं हैं और लौकिक को मानते भी नहीं हैं। अत एव, श्रीकृष्ण विषयक ही अपना भाव (प्रेम) होना चाहिये। इहलोक और परलोक में श्रीकृष्ण ही सर्वस्व है इसलिये सर्वात्मभावपूर्वक वह गोपीश, श्रीकृष्ण ही सेव्य है।

फिर प्रभु स्वयं ने डेढ़ श्लोक कहकर श्रीआचार्यजी द्वारा उपदिष्ट शिक्षा श्लोको को पूर्ण किया| | मानो महाप्रभुजी की आज्ञा पर जैसे मुहर लगाई हो, 

मयि चेदस्ति विश्वासः श्रीगोपीजनवल्लभे ।।4।।

तदा कृतार्था यूयं हि शोचनीयं न कर्हिचित् ।

मुक्तिर्हित्वाऽन्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति।। 5।।

भावार्थ :

मुझ गोपीजनवल्लभ में जो विश्वास होगा तो कृतार्थ हो जाओगे; इसमें किसी भी प्रकार का शोक योग्य नहीं है। अन्यथा रूप त्याग कर के स्व स्वरूप में स्थितिं करना ही मुक्ति है।

श्रीनाथजी को दंडवत कर महाप्रभुजी खड़े हुए। धीरे-धीरे एक-एक चरण गंगाजी में पधराने लगे। गंगाजी में तरंगें उछलने लगीं। आपश्री नाभि सुधी – कटि सुधी गंगाजी की मध्य धारा में पधारे। तब एक दिव्य पुंज प्रकट हुआ।

और सूर्य मंडल तक जाकर  स्थिर हुआ। हजारों सेवकों, और अन्य व्यक्तियों ने इस लीला के दर्शन किए। उस समय विदेश से आया एक अंग्रेज लेखक भारत के विश्वविद्यालय में ज्ञान लेने आया था । भाग्यवश वह भी वहां उपस्थित था  उसने इस दिव्य लीला के दर्शन किए।

उसने अपनी लिखी पुस्तक में अपनी आँखों देखे दृश्य का वर्णन करते हुए कहा, “यह संसार की महान आश्चर्यजनक घटना थी, ऐसी घटना मैंने कभी नहीं देखी थी।” यह अलौकिक लीला लगभग 3 घंटे तक निरंतर चलती रही। महाप्रभुजी स्वधाम पधारे।

श्री वल्लभने आसुर व्यामोह लीला की। श्री वल्लभने अपने उस दिव्य पुंज को दंडवती शिला के पास श्री गिरिराजजी की कंदरा में पधाराया

महाप्रभुजी वल्लभाचार्य जी आसूर व्यामोह लीला | रथयात्रा
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