सेवा फलम् – षोडश ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी रचित षोडश ग्रंथ मे से एक ग्रंथ सेवा फलम् ग्रंथ |

सेवाफलम् ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

84 वैष्णव मे से विष्णुदास छिपा जो प्रथम अष्टछाप मण्डल के हिस्सा थे | श्री महाप्रभुजी के शरण मे आए । तब श्री आचार्यजी श्रीयमुनाजी के घाट पधारकर विष्णुदास को स्नान करवाके, उनको नाम सुनाया और ब्रह्मसम्बन्ध किया।

तब विष्णुदास ने निवेदन किया महाराज! मैं मूर्ख हूं इसलिए कृपया मुझे श्री भागवत आदि ग्रंथों का कुछ ज्ञान करा दीजिए, मुझे आपके मार्ग का सिद्धांत समझ में आये | तब श्री आचार्यजी ने ‘सेवा-फलम्‘ नामक ग्रंथ की रचना की और उसे विष्णुदास को सुनाया।

यह सुनकर विष्णुदास ने निवेदन किया महाराज | ‘सेवा-फल’ ग्रंथ के श्रवण से सभी शास्त्र और पुराणका ज्ञान हो गया। परन्तु ‘सेवा-फल’ पाठ का अभिप्राय समझ में नहीं आया। तब श्रीआचार्यजी ने कहा, जो ‘सेवा-फल’ ग्रन्थ कठिन है।

अच्छा किया जो पूछा। तब श्री महाप्रभुजी ने ‘सेवा-फल’ पर टिप्पणी की रचना करके सुनाया। तब मार्गका संपूर्ण सिद्धांत विष्णुदास को तब ज्ञात हुआ और हृदयागूढ हुआ | उसमें मगन हो गये |

।। सेवाफलम् ।।

यादृशी सेवना प्रोक्ता तत्सिद्धी फलम् उच्यते ।।
अलीकिकस्य दाने हि चाद्यः सिध्येन् मनोरथः ।।१।।
फलं वा हाधिकारों” वा न कालोऽत्र नियामकः ।।
उद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो” वा स्यात् तु बाधकम् ।।२।।
अकर्तव्यं भगवतः सर्वथा चेद् गतिर् न हि ।।
यथा वा तत्त्वनिर्धारो विवेकः साधनं मतम् ।।३।।
बाधकानां परित्यागो भोगेऽप्येकं तथा परम् ।।
निष्प्रत्यूहं महान् भोगः प्रथमे विशते सदा ।।४।।
सविघ्नोऽल्पो घातकः स्याद् बलाद् एती सदा मतौ ।।
द्वितीये” सर्वथा चिन्ता त्याज्या संसार-निश्चयात् ।।५।।
नत्वाद्ये दातृता नास्ति तृतीये बाधकं गृहम् ।।
अवश्येयं सदा भाव्या सर्वम् अन्यन् मनोभ्रमः ।।६।।
तदीयेर् अपि तत्कार्य पुष्टी नैव विलम्बयेत्’ ।।
गुणक्षोभेऽपि द्रष्टव्यम् एतदेवेति मे मतिः ।।७।।
कुसृष्टिर् अत्र वा काचिद् उत्पद्येत स वै भ्रमः ।।
।। इति श्रीवल्लभाचार्यविरचितं सेवाफलं सम्पूर्णम् ।।

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