नवरत्नम् स्तोत्रम् – षोडस ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी रचित षोडस ग्रंथ मे से एक  नवरत्नम् स्तोत्रम् ग्रंथ |

नवरत्नम् स्तोत्रम् ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

गुजरात के खेरालु गाव के रहवासी गोविंद दुबे के माता पिता आर्थिक रूप से सद्धर थे परंतु भक्ति परायण नहीं थे जब की गोविंद दुबे बचपन से ही वैरागी थे | जब उनके माता पिता तीर्थ यात्रा के लिए नहीं माने तब अकेले ही तीर्थ यात्रा के लिए निकल गए |

सारे तीर्थ की यात्रा के बाद द्वारका आए वहा कुछ दिन रुके उसके बाद काशी गए | वहा के पंडितों को देखकर उनको भी पंडित बनने की इच्छा हुई | वह काशी के घाट पर बैठे थे तब वहा श्री महाप्रभुजी पधारे | गोविंद दुबे आपश्री के दर्शन कीए  और गुरु बनकर शास्त्र का ज्ञान देने की बिनती की |

उनकी इच्छा का मान रख कर महाप्रभुजी ने उनको दूसरे ही दिन से गीता का ज्ञान देने के लिए एक श्लोक के भावार्थ को समजाया | फिर गोविंद दुबे को आज्ञा की की दूसरे श्लोक के अर्थ करे | इस तरह कुछ दिनों मे ही उनको भगवद गीता का ज्ञान हो गया |

अब उनको श्री महाप्रभुजी पर संपूर्ण श्रद्धा बैठ गई थी इस लिए ब्रम्ह संबंध दे कर शिष्य बनाने की बिनती की | श्री महाप्रभुजी ने उनको आज्ञा की की ब्रम्ह संबंध के पश्चात वैष्णव का एक ही प्रमुख कार्य है भगवद सेवा है | गोविंद दुबे ब्रम्ह संबंध ले कर घर से भगवद स्वरूप पधाराकर महाप्रभुजी के पास आकर पुष्ट करवाके खेरालु गाव जाकर सेवा पहुच ने लगे |

परंतु उनकी सेवा पहुचने मे मन नहीं लग रहा था | ठाकोरजी उनकी सेवा स्वीकार ते है या नहीं इसे प्रश्न का विचार करते रहते थे | अपनी चिंता का विवरण करता हुआ पत्र श्री महाप्रभुजी को भेजा | श्री महाप्रभुजी ने उन्हे चिंता ना करते हुए संपूर्ण मन सेवा मे रखने की आज्ञा करते हुए नों श्लोकों की रचना की और इस ग्रंथ को पत्र के द्वारा गोविंद भट्ट को भेजा और नित्य पठन करने की आज्ञा | गोविंद भट्ट का मन सेवा मे लगने लगा | यह नों श्लोक, नों रत्नों के समान थे इस लिए ग्रंथ का नाम “नवरत्नम् स्तोत्रम्” हुआ |

 || नवरत्नम् स्तोत्रम् ||

चिन्ताकापि न कार्या, निवेदितात्मभिः कदापीति ।
भगवानपि पुष्टिस्थो, न करिष्यति लौकिकीं च गतिम ॥ १ ॥

निवेदनं तु स्मर्त्तव्यं, सर्वथा ताद्रशेेर्जन |
सर्वेश्च सर्वात्मा, निजेच्छातः करिष्यति: ॥ २ ॥

सर्वेषां प्रभुसंबंधो, न प्रत्येकमिति स्थितिः ।
अतोन्य विनियोगेsपि चिन्ता का स्वस्य सोऽपिचेत ॥ ३ ॥

अज्ञानादथवा ज्ञानात् , कृतमात्म निवेदनम्
यैः कृष्णसात्कृत प्राणैस्तेषां का परिदेवना ॥ ४ ॥

तथा निवेदने चिन्ता, त्याज्या श्री पुरुषोत्तमे ।
विनियोगेsपि सा त्याज्या, समर्थो हि हरिः स्वतः ॥ ५ ॥

लोके स्वास्थ्यं तथा वेदे, हरिस्तु न करिष्यति ।
पुष्टिमार्ग स्थितो यस्मात्- साक्षिणो भवता खिलाः ॥ ६ ॥

सेवाकृतिर्गुरोराज्ञा – बाधनं वा हरीच्छया ।
अतः सेवा परं चित्तं, विधाय स्थीयतां सुखम् ॥ ७ ॥

चित्तोद्वेगं विधायापि, हरिर्यद्यत करिष्यति ।
तथैव तस्य लीलेति, मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत ॥ ८ ॥

तस्मात्सर्वातमना नित्यं, श्री कृष्णः शरणं मम ।
वदद् भिरेव सततं, स्थेयमित्येव मे मति: ॥ ९ ॥

|| इति श्रीमद् वल्लभाचार्य विरचितं श्री नवरत्न स्तोत्रं संपुणम् ||

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