बालबोधः – षोडस ग्रंथ

श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी रचित षोडस ग्रंथ मे से द्वितीय ग्रंथ बालबोधः ग्रंथ

बालबोध ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

श्री महाप्रभुजी के एक सेवक नारायणदास कायस्थ | वैष्णव बनने से पूर्व उनको जुआ खेलने की आदत थी | इस कारण से उनके पिता ने उनको घर से निकाल दिया | तब वह दक्षिण मे आए | यहा कृष्णदास जी की आडी से श्री महाप्रभुजी की शरण मे आए |

वैष्णव बनने के पश्चात नारायण दास श्री महाप्रभुजी के सानिध्य मे उनके साथ रहने लगे | वचनामृत सुनते, महाप्रसाद लेते | नारायणदास श्री आचार्यजी के द्वारका पहुँचने तक उनके साथ रहे। तब श्रीआचार्यजी ने कहा. “नारायणदास! तुम अपने घर जाओ | ”

तब नारायणदास ने निवेदन किया, महाराज! मेरे पिता ने मुझे जुआरी जानकर देश से निकाल दिया, अब मुझे घर में कैसे रखा जायेगा? तब श्रीआचार्यजी ने कहा, “अब तुम्हें रखेंगे | चिंता मत करो। तब नारायणदास ने कहा, महाराज! माता-पिता सेवक – वैष्णव नहीं हैं | तो मेरे धर्म निर्वाहन कैसे होगा ? अगर प्रतिबंध लगा देंगे तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा।

तब श्रीआचार्यजी ने कहा, तुम स्वरूपसेवा नहीं कर पाओगे। फिर दूसरों के लिए काम करने के लिए घर में कोई नौकर नहीं है इसलिए हस्ताक्षर लिखके देता हु | तुम्हसे जो सामग्री हो सके वह सिद्ध करके धरकर महाप्रसाद ग्रहण करना |

उसके बाद उन्होंने ब्रह्मसम्बन्ध का श्लोक और अष्टाक्षर लिखकर नारायणदास को दे दिया। तब नारायणदास ने निवेदन किया, महाराज! मैं इतने दिनों तक आपके साथ रहा, परन्तु मेरी अंतरात्मा को ज्ञान न हुआ।

तो कुछ एसी कृपा कीजिए जिससे मुझे संसार का सुख दुख कोई बाधा न उत्पन्न करे | मन श्रीठाकुरजी के चरणार्वींद में ही लगा रहे। तब श्री आचार्य जी ने अपना चरणामृत दिया और ‘बालबॉय‘ ग्रन्थ का उपदेश किया।

बालबोधः

नत्वा हरिं सदानन्दं सर्व -सिद्धान्त-संग्रहम्  ।। 

वाल-प्रबोधनार्थाय वदामि सुविनिश्चितम्  ।।१।।

‘धर्मार्थ-काममोक्षा ‘ख्याश् चत्वारोऽर्था मनीषिणाम् ।। 

जीवेश्वर-विचारेण द्विधा ते हि विचारिताः ।।२।। 

अलौकिकास्तु वेदोक्ताः साध्य साधन-संयुताः ।। 

लौकिका ऋषिभिः प्रोक्तास् तथैवेश्वर-शिक्षया ।।३।। 

लौकिकंस्तु प्रवक्ष्यामि वेदाद् आद्या यतः स्थिताः ।। 

धर्मशास्त्राणि नीतिश्च कामशास्त्राणि च क्रमात् ।।४।। 

त्रिवर्ग-साधकानीति न तन्निर्णय उच्यते ।।

मोक्षे चत्वारि शास्त्राणि लौकिके परतः स्वतः ।।५।। 

द्विधा द्वे-द्वे स्वतस् तत्र सांख्य-योगी प्रकीर्तितौ ।। 

त्यागात्याग-विभागेन सांख्ये त्यागः प्रकीर्तितः ।।६।। 

अहन्ता-ममता-नाशे सर्वथा निरहंकृतौ ।।

स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते ।।७।। 

तदर्थ प्रक्रिया काचित् पुराणेऽपि निरूपिता ।।

ऋषिभिर् बहुधा प्रोक्ता फलम् एकम् अबाह्यत  ।।८।। 

अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोऽपि मनसैव हि ।।

यमादयस्तु कर्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता ।।९।।

पराश्रयेण मोक्षस्तु द्विधा सोऽपि निरूप्यते ।। 

ब्रह्मा ब्राह्मणतां यातस् तद्रूपेण सुसेव्यते ।।१०।।

ते सर्वार्था न चाद्येन शास्त्रं किञ्चिद् उदीरितम् ।। 

अतः शिवश्च विष्णुश्च जगतो हितकारकौ  ।।११।।

वस्तुनः स्थिति-संहारौ  कार्यों शास्त्र-प्रवर्तकौ।। 

ब्रह्मैव   तादृशं यस्मात् सर्वात्मकतयोदितौ  ।।१२।।

निर्दोष-पूर्ण-गुणता तत्-तच्छास्त्रे तयोः कृता ।। 

भोग-मोक्ष-फले दातुं शक्तौ  द्वावपि यद्यपि।।१३।।

भोगः शिवेन मोक्षस्तु विष्णुनेति विनिश्चयः ।। 

लोकेऽपि यत् प्रभुर्भुक्ते तन् न यच्छति कर्हिचित् ।।१४।।

अतिप्रियाय तदपि दीयते क्वचिदेव हि ।। 

नियतार्थ-प्रदानेन तदीयत्वं तदाश्रयः ।।१५।।

प्रत्येकं साधनं चैतद् द्वितीयार्थे महान् श्रमः ।। 

जीवाः स्वभावतो दुष्टा दोषाभावाय सर्वदा ।।१६।।

श्रवणादि ततः प्रेम्णा सर्व कार्य हि सिध्यति ।। 

मोक्षस्तु सुलभो विष्णोर् भोगश्च शिवतस्तथा ।।१७।।

समर्पणेनात्मनो हि तदीयत्वं भवेद् ध्रुवम् ।। 

अतदीयतया चापि केवलश्चेत् समाश्रितः ।।१८ ।।

तदाश्रय-तदीयत्व – बुद्ध्यै किंचित् समाचरेत् ।। 

स्वधर्मम् अनुतिष्ठन् वै भारद्वैगुण्यम् अन्यथा ।।

इत्येवं कथितं सर्व नेतज्ज्ञाने भ्रमः पुनः ।।१९।।

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