कुंभनदास जी : अष्ट छाप कवि – अष्टसखा

Kumbhandasji short info

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कुंभनदास अष्ट सखा वार्ता प्रसंग और जीवन चरित्र दर्शन |

वीं. सं 1466 गुर्जर अषाढ़ वद त्रिज के दिन श्री गिरीराजजी का मध्य सिखर देव सिखर मे से प्रभु की ऊर्ध्व भुजा का प्राकट्य हुआ |

Shrinathji Urdhva bhuja praktya

श्रावण सूद ५ के दिन एक बृजवासी अपनी खोई हुई गाय को ढूँढने के लिए गिरीराजजी आया और प्रभु की ऊर्ध्व भुजा का दर्शन किया | इस कौतूहल की बार सभी को बताई और सभी लोग देखने आए | सबको लगा पर्वत के देव है जब तक सामने से प्रकट न हो तबतक हम उनकी भुजा का पूजन करेंगे | सभी बृजवासी ने पूजन का क्रम चालू किया | हर साल श्रावण सूद ५ के दिन ब्रिज मे मेला लगने लगा | प्रभु सभी का मनोरथ पूर्ण करते | महिमा बढ़ने लगा | ६९ साल तक भुजा के पूजन का क्रम चालू रहा |

श्री गिरीराजजी के तलेटी मे बहुत सारे छोटे मोटे गाव बसे हुए थे | उन्मे से एक गाव था जहा जमुनाजी का बहाव बहता था इसलिए नाम हुआ “जमुनावता”| वहा धर्मदास नामके गोरवा क्षत्रिय रहते |उनके पास ४०० -५०० गाय थी उसमे से एक गाय का नाम “घूमर” था | वह गाय एक दिन शामको घर नहीं लोटी | धर्मदास को चिंता हुई | उनका एक भतीजा था उसका नाम “कुंभन” | “कुंभन” के पास पिताजी की एक जमीन थी वहा खेती करते, गाय चराते |

बहुत मेहनती , धर्मदास ने अपने भतीजे “कुंभन” को कहा हम गाय ढूंढके आते है | कुंभन थके हुए थे जाने का मन नहीं था; परंतु न जाने क्यू उनको अंदरसे एक अलौकिक आवाज आ रही थी “अरे ! कुंभन तु बेगी बेगी (जल्दी )निकल मे तेरी बाट निहारू हु “| दोनों चाचा भतीजे गाय ढूंढते ढूंढते सिखर पर आए और देखा की गाय अपने आप अपना दूध शीला मे दो रही थी ; हिलाने परभी हिल नहीं रही थी |  

दोनों चाचा भतीजेको अंदरसे एक अत्यंत अद्भुत मधुर स्वर सुनाई दिया “अरे ! धर्मदास यह गैया कोई सामान्य गैया नहीं है | यह नंदरायजी के वंश की गाय है और मोको इसको दूध अति भावे है | आपका गाव दूर होने से इसको यहा आने मे विलंब हो रहा है | आप एक काम कीजिए यहा आन्योर के मुखी सदुपाण्डे की एक गाय का नाम भी सुरभि है वह भी नंदरायजीके वंश की गाय है वह मुझे दूध आरोगाने आती थी परंतु थोड़े समय से नहीं आ रही है |

तो आप एक काम कीजिए आपकी गाय को सदुपाण्डे के वहा छोड़ आइए ताकि गाय जल्दी से यहा आ सके | सदुपाण्डे के पूछने पर कोई बहाना कर देना |” तद पश्चात फिर से स्वर आया “अरे ! कुंभना तुम मेरे सखा हो ! नित्य मेरे साथ खेलने आना | मे तुम्हारी बाट देखूँगा |” यह सुनकर कुंभन को मूर्छा आ गई | फिर मूर्छा तुटने पर दोनों चाचा भतीजे अपने गाय को सदुपाण्डे के पास ले गए और बहाना करके गाय वही रखी |

फिर नित्य कुंभन गाय चराने जाते ,गैया घास चरती और कुंभन जी प्रभु के सन्मुख बैठते और प्रभु के साथ नित्य खेलते | सब ब्रिजवासिने प्रभु से पूछा आप हमारे सभी मनोरथ पूरे करते हो | हम आपकी भुजा का पूजन कर रहे है | अब आपके स्वरूप के दर्शन कन्दरा मे से बहार पधार कर दीजिए | तब श्रीजी बावा आज्ञा करते है अभी नहीं मुजे बहार पधराने वाले जब ब्रिज मे आएंगे तब वही हमे बहार पधरावेंगे |

Shri Mahaprabhuji Praktya in champaranya kumbhandasji story

वी. सं. १५३५ चैत्र वद ११ के दिन श्री महाप्रभुजी का प्रादुर्भाव भूतल पर हुआ  |  

जिस दिवस श्री महाप्रभुजी का प्राकट्य हुआ उसी दिवस प्रभुने सर्व प्रथम समय आपके  मुखारविंद के दर्शन बृजवासी को दिए |

Shrinathji Mukharvind darshan to deovotees

मुखरविद के प्राकट्य पश्चात १४ वर्ष तक अनेक लीलाए करके बृजवासी के मन मोह लिए |

 एसा कहा जा सकता है की सबमे सबसे ज्यादा किसीपे अगर क्रुपा बरसाई है  तो वह कुंभनजी पर ; नित्य प्रभु उनके साथ खेलते, उनसे चंपी कराते ,

Krishna with kumbhandasji

गोपीओ के घर माखन चोरी के लिए ले जाते फिर खुद भाग जाते और कुंभनजी को मार खाना पड़ता | इस तरह दोनों के बीच मे अत्यंत सखा भाव हो गया था |

Krishna with kumbhandasji
Shrinathji's aagya to Shri Vallabh in zharkhand

१४ वर्ष के बाद प्रभु ने श्री महाप्रभुजीको जारखंड मे आज्ञा की “है वल्लभ ! अब हमे आपका विरह नहीं सहा जा रहा और हमारी लीला सृष्टि 

ब्रिज मे आ चुकी है हमे उनके लीलाए करनी है आप जल्दी ब्रिज मे पधारकर हमे कन्दरा मे से बहार पधराईए |

श्री महाप्रभुजी दक्षिण की यात्रा अधूरी छोड़ कर ब्रिज पधारे और फिर आन्योर सदुपाण्डे के यहा पधारे |

Shri Mahaprabhuji's Arrival in Aanyor village

रात्रिको सभी बृजवासी सदुपाण्डे के इकठठे हुए और सभी लीला  का वर्णन श्री महाप्रभुजी को किया | महाप्रभुजीने सबको प्रभुके स्वरूप का ज्ञान कराया | प्रातः काल सभी को ब्रम्हसंबंध कराया और फिर सर्व प्रथम समय प्रिय प्रीतम का मिलन हुआ | 

Shrinathji Shri mahaprabhuji Pratham Milan

श्री महाप्रभुजी और श्रीनाथजी का यह  मिलन प्रथम मिलन के रूप मे जाना जाता है |

श्री महाप्रभुजी ने प्रभुको छोटेसे मंदिर मे पाट पधराकर स्वयं श्री हस्त से भाति भाति की सामग्री सिद्ध करके प्रभुको आरोगाया | उस समय प्रथम बार प्रभुने इतने सालोमे सखड़ी का भोग ग्रहण किया |

फिर श्री महाप्रभुजीने रामदासजी चौहान को प्रभुकी सेवा सोपी |

Shri Mahaprabhuji Explaining seva prakar to Ramdasji

कुंभनदासजी कीर्तन अत्यंत मधुर गाते , अद्भुत प्रभु की लीला का वर्णन करते इसलिए उनको कीर्तन की सेवा सोपी |

Kumbhandas recived Kirtan seva in Shrinathji's Seva

कुंभनदासजी परिवार सह ब्रम्ह संबंध लेकर वैष्णव बने तब उन्हे सभी लीला की स्फुरणा होने लागि थी और एक से एक अच्छे कीर्तन प्रभु सन्मुख गाते और प्रभु को सुख देते |जमुनवता से रोज दर्शन करने गिरीराजजी जाते वहा जाकर लीला के दर्शन करते और कीर्तन का पद गान करते |

Shrinathji and Kumbhandasji friendship

कई बार प्रभु कुंभनदासजी के घर पधारते और वहा क्रीडा करते | वार्ता सुनाते , कुंभनदासजी के हस्त से भोग आरोगते | कई तरह से प्रभु कुंभनदासजी पर कृपा बरसाते |

 कुंभनदासजी भी नित्य नये पद की रचना करके प्रभु को सुनाते | उनके पद सभी जगह प्रचलित होने लगे थे | लोग उनके पद सुनकर दंग रह जाते थे | उनके पद की प्रसंसा बादशाह अकबर तक भी पहुच चुकी थी | लोग उनके पद गाने लगे थे |

उन्हे लौकिक मे कोई मोह नहीं था | निरंतर प्रभु लीला मे मग्न रहते | उनसे प्रभु का विरह सहा नहीं जाता | अगर एक दो दिन भी दर्शन न हो तो व्याकुल हो उठते | उसी  वजह से हमेशा प्रभु के सन्मुख ही रहते और उनके सुख का नित्य ख्याल रखते |       

कुंभनदासजी के अन्य वार्ता प्रसंग 84 वैष्णव की वार्ता मे , गुजराती एवं हिन्दी-ब्रिज भाषा मे पढ़ने के लिए नीचे दीए बटन पर स्पर्श करे |

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