निरोधलक्षणम् – षोडश ग्रंथ 

श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी रचित षोडश ग्रंथ मे से एक ग्रंथ : निरोधलक्षणम् ग्रंथ |

निरोधलक्षणम् ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

राजा दुवे और माधो दुवे नामक 2 जीव महाप्रभुजी के शरणमे आए । वैष्णव बन गये | तब श्रीआचार्यजी ने कहा, जाओ, श्रीठाकुरजी को मुकाम से ले आओ। तो माधो दुवे गये और श्रीठाकुरजी की जापीजी ले आये।
तब श्रीआचार्यजी ने श्रीठाकुरजी को पंचामृत स्नान कराया और राजा दुवे और माधो दुवे के मस्तक पर पधराया | सभी स्थानों से मन त्याग कर भगवद सेवा करने की आज्ञा दी। तब राजा दुवे और माधो दुवे ने निवेदन किया कि महाराज! निरोध का स्वरूप क्या है?
तब श्रीआचार्यजी कहते हैं, निरोध दो प्रकार के होते हैं। एक साधना दशा और दूसरी सिद्ध दशा साधना एक ही संसार की साधना विशेषता वैदिक मन में पसंद नहीं आती। यही मन में रखो कि जब मैं भगवान की सेवा कर रहा होता हूं, जब मुझे कथा में रुचि होती है, जब मन सांसारिक कार्यों में चला जाता है तो वह वापस सेवा में खिंच जाता है।
ऐसा लगता है मानो सारे काम भगवान की मदद से ही पूरे होते हैं। इसे साधन दशा का निरोध कहा जाता है | दूसरे को फल दशा का निरोध कहा जाता है। कि मन स्वतः ही ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त कर लेता है कि श्रीठाकुरजी के स्वरूप के ध्यान के बिना दूसरी जगह जाता ही नहीं।
लौक्रिक वैदिक कर्म करता है परंतु श्रीठाकुरजी के बिना मन अन्यत्र नहीं जाता वह फलदशा का निरोध है । वह इस संसार के सुख और दुःख को दूसरों को महसूस होता है। वह होता नहीं | मन श्रीठाकुरजी और उनके लीला रस में लीन रहे, यह निरोध का ही दूसरा रूप है।
तब राजा दुवे और माधो दुवे ने निवेदन किया, महाराजाधिराज! हमें दोनों प्रकार का निरोध दुर्लभ लगता है। तो जैसे हमे हाथ पकड़कर संसार सागर में डूब रहे थे तब आपने हमे शरण मे लिया है। उसी प्रकार यदि आप निरोध का दान देंगे तो हमें कुछ प्राप्त होगा।
अन्यथा हमारे पास कोई सामर्थ्य नहीं है | दोनों भाइयों की दीनता और सरल स्वभाव को देखकर महाप्रभुजी ने दशमस्कंध जिसे निरोधस्कंध कहते है । उसमे से आपश्री ने ‘निरोधलक्षण‘ की रचना की और इसका ज्ञान दोनों भाइयों को दिया। तब तुरन्त ही दोनों भाइयों का मन अलौकिक हो गया। लीलारस का अनुभव होने लगा।
तब श्रीआचार्यजी ने कहा, अब अपने घर जाकर सेवा करो, जिसने निरोध किया हो | उनहे अधिक बात नहीं करनी चाहिए , न ही देश-देशान्तर में भ्रमण करना चाहिए । तो घर जाओ | जो भी देवी जीवा आए उनको नाम दें | आपने निरोध प्राप्त कर लिया है।

।। निरोधलक्षणम् ।।

यच्च दुःखं यशोदाया नन्दादीनां च गोकुले ।।

गोपिकानांतु यद् दुःखं तद्दुःखं स्यान्ममक्वचित् ।।१।। 

गोकुले गोपिकानां च सर्वेषां व्रजवासिनाम् ।।

यत् सुखं समभूत् तन्मे भगवान् किं विधास्यति ।।२।। 

उद्धवागमने जात उत्सवः सुमहान् यथा ।।

वृन्दावने गोकुले वा तथा मे मनसि क्वचित् ।।३।। 

महतां कृपया यावद् भगवान् दययिष्यति ।। 

तावद् आनन्द-सन्दोहः कीर्त्यमानः सुखाय हि ।।४।।

महत्तां कृपया यद्वत् कीर्तनं सुखदं सदाः ।। 

न तथा लौकिकानां तु स्निग्ध-भोजन रूक्षवत् ।।५।। 

गुणगाने सुखावाप्तिः गोविन्दस्य प्रजायते ।।

यथा तथा शुकादीनां नैवात्मनि कुतोऽन्यतः ।।६।।

क्लिश्यमानान् जनान् दृष्ट्वा कृपायुक्तो यदा भवेत् ।।

तदा सर्व सदानन्दं हृदिस्थं निर्गतं बहिः ।।७।। 

सर्वानन्द-मयस्यापि कृपानन्दः सुदुर्लभः ।।

हद्गतः स्वगुणान् श्रुत्वा पूर्णः प्लावयते जनान् ।।८।।

तस्मात् सर्व परित्यज्य निरुद्धैः  सर्वदा गुणाः ।। 

सदानन्दपरैर् गेयाः सच्चिदानन्दता ततः ।।९।। 

अहं निरुद्धों रोधेन निरोध-पदवीं गतः ।।

निरुद्धानां तु रोधाय निरोधं वर्णयामि ते ।।१०।।

हरिणा ये विनिर्मुक्तास् ते मग्ना भवसागरे ।।

ये निरुद्धास् तएवात्र मोदम् आयान्त्यहर्निशम् ।।११।। 

संसारावेश दुष्टानाम् इन्द्रियाणां हिताय वै ।।

कृष्णस्य सर्ववस्तृनी   भूम्न ईशस्य योजयेत् ।।१२।। 

गुणेष्वाविष्ट-चित्तानां सर्वदा मुरवैरिणः ।।

संसार-विरह-क्लेशौ  न स्यातां हरिवत् सुखम् ।।१३।। 

तदा भवेद् दयालुत्वम् अन्यथा क्रूरता मता ।।

वाधशंकापि नास्त्यत्र तदध्यासोऽपि सिध्यति ।।१४।।

भगवद्-धम-सामर्थ्याद् विरागो विषये स्थिरः ।। 

गुणैर् हरि-सुख-स्पर्शात् न दुःखं भाति कर्हिचित् ।।१५।। 

एवं ज्ञात्वा ज्ञानमार्गाद् उत्कर्षो गुण-वर्णने ।।

अमत्सरैर् अलुब्धेश्च वर्णनीयाः सदा गुणाः ।।१६।।

हरिमूर्तिः सदा ध्येया संकल्पाद् अपि तत्र हि ।।

दर्शनं स्पर्शनं स्पष्ट तथा कृतिगती सदा ।।१७।। 

श्रवणं कीर्तनं स्पष्टं पुत्रे कृष्णप्रिये रतिः ।।

पायोर् मलांश-त्यागेन शेषभागं तनी नयेत् ।।१८।। 

यस्य वा भगवत्कार्य यदा स्पष्टं न दृश्यते ।।

तदा विनिग्रहस् तस्य कर्तव्य इति निश्चयः ।।१९।। 

नातः परतरो मन्त्रो नातः परतरः स्तवः ।।

नातः परतरा विद्या तीर्थ नातः परात् परम् ।।२०।।

।।  इति श्रीवल्लभाचार्यप्रकटितं निरोधलक्षणम् सम्पूर्णम् ।।

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