संन्यासनिर्णयः ग्रंथ – षोडश ग्रंथ 

श्री वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी रचित षोडशग्रंथ मे से एक ग्रंथ : संन्यासनिर्णयः ग्रंथ |

संन्यासनिर्णयः ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

क्षत्रिय के 2 पुत्र आनन्ददास और विश्वम्भरदास। इन दोनों के मन बचपन से ही वैरागी थे। वैरागी के संग रहते , कथा सुनते। एक बार दोनों भाई यमुनाजी के तट पर बैठे ज्ञान की बातें कर रहे थे। इतनी कथा सुनने के बाद भी ठाकुरजी मे मन नहीं लगा। मन वश नहीं हुआ | जन्मवृथा गया।
दोनों भाई सिर पीट-पीटकर रोने लगे। रात को वहीं पड़े रहे | तब श्रीठाकुरजी ने महाप्रभुजी को आज्ञा की कि यह जीव को मेरे मिलन का ताप है। उनके शरण मे लीजिए | महाप्रभुजी ने कृष्णदास मेघन अन्य वैष्णवों को जगाया और उसी समय वहाँ पधारे |
वैष्णव नाव द्वारा इन दोनों भाइयों के पास पहुँचे। महाप्रभुजी ने वैदिक मंत्रों से उन्हें अचेत अवस्था से जगाया और फिर उनको नाम सुना कर उन्हें ब्रह्मसंबंध दिया। वह उन्हें अपने साथ ले आए । प्रातःकाल होने पर श्रीआचार्यजी स्नान करके श्रीठाकुरजी की सेवा पहुँचे | और दोनों भाइयों से भगवत सेवा करने को कहा |
तब दोनों भाइयों ने विनती की, महाराज! हमारा मन तो संन्यास लेने का है | लेकिन दूसरी जगह मन जाता नहीं | यदि हमारा मन ठिकाने पे रहे , त्याग दशा छूटे तब हम घर में रह पाएंगे | और तब भगवद सेवा हो शके |
तब श्री आचार्य जी ने चरणामृत दिया। ‘संन्यास निर्णय‘ ग्रंथ की रचना करके दोनों भाई को सुनाया। तो जो रस उछलित था वह भगवदरस हृदय में स्थिर हुआ । मन की चिंता दूर हो गयी |

एक बार नरहर सन्यासी नाम के महाप्रभुजी के एक वैष्णव घूमते घूमते बद्रिकाश्रम आए । आचार्यश्री महाप्रभुजी भी वहाँ पधारे | नरहर सन्यासी ने आपके दर्शन किये। श्रीआचार्यजी महाप्रभु से निवेदन किया, महाराज! मैंने पहले ही संन्यास ले लिया था, फिर आपकी कृपा से भक्ति के मार्ग पर आ गया।
मैं सन्यास के प्रकार को जानता हूं, लेकिन भक्तिमार्ग का प्रकार क्या है। मैं यह नहीं जानता. तो कृपया मुझे बताएं. तब श्रीआचार्यजी ने कहा, मैं तुम्हें भक्तिमार्ग के सन्यास का प्रकार बता रहा हूँ।
तब श्री आचार्य जी ने ‘संन्यास निर्णय‘ नामक ग्रंथ नरहर संन्यासी को पढ़ाया तथा उसका अर्थ बताया। इसीलिए नरहर संन्यासी के हृदय में पुष्टिमार्ग का सिद्धांत स्थापित हो गया। तब उन्हें श्रीठाकुरजी की लीला का अनुभव हुआ |
और वे लीला में लीन हो गये। फिर श्री आचार्य जी वहां से आगे बढ़े। नरहर सन्यासी स्वरूपानन्द में मग्न होकर विचरण करते थे। वह नरहर संन्यासी श्री आचार्यजी के ऐसे कृपापत्र वैष्णव थे।

।। संन्यासनिर्णयः ।।

पश्चात्ताप-निवृत्त्यर्थ परित्यागो विचार्यते ।। 

स मार्गद्वितये प्रीक्तो भक्ती ज्ञाने विशेषतः ।।१।।

कर्ममार्गे न कर्तव्यः सुतरां कलिकालतः ।। 

अत आदौ भक्तिमार्गे कर्तव्यत्वाद् विचारणा।।२।।

श्रवणादि-प्रसिद्ध्यर्थं कर्तव्यश् चेत् स नेष्यते ।। 

सहाय-सङ्ग-साध्यत्वात् साधनानां च रक्षणात् ।।३।।

अभिमानात् नियोगात्’ च तद्-धर्मश्च विरोधतः ।। 

गृहादेः वाधकत्वेन साधनार्थ तथा यदि ।।४।।

अग्रेऽपि तादृशैर् एव सङ्गो भवति नान्यथा ।। 

स्वयञ्च विषयाक्रान्तः पाषण्डी स्यात्तु कालतः ।।५।।

स्विषयाकान्त-देहानां नावेशः सर्वदा हरेः ।। 

अतो-ऽत्र साधने भक्तौ   नैव त्यागः सुखावहः ।।६।।

विरहानुभवार्थन्तु परित्यागः प्रशस्यते ।। 

स्वीय-बन्ध-निवृत्त्यर्थं वेशः सोऽत्र न चान्यथा  ।।७।।

कौण्डिन्यो गोपिकाः प्रोक्ताः गुरवः साधनं तद्- ।।

भावो भावनया सिद्धः साधनं नान्यद् इष्यते ।।८।।

विकलत्वं तथास्वास्थ्यं प्रकृतिः, प्राकृतं न हि ।। 

ज्ञानं गुणाश्च तस्येवं वर्तमानस्य वाधकाः ॥९॥

सत्यलोके स्थितिर् ज्ञानात् संन्यासेन विशेषितात् । 

भावना साधनं यत्र फलं चापि तथा भवेत।।१०।।

तादृशाः सत्यलोकादी तिष्ठन्त्येव न संशयः । 

बहिश् चेत् प्रकटः स्वात्मा व  प्रविशेद द्यदि ।।११।।

तदैव सकलो बन्धो  नाशमेति न चान्यथा ।।

गुणास्तु सङ्ग-राहित्याद् जीवनार्थ भवन्ति हि ।।१२।।

भगवान् फलरूपत्वात् नात्र बाधक इष्यते ।।

स्वास्थ्य-वाक्यं न कर्तव्यं दयालुर न विरुध्यते ।।१३।।

दुर्लभो-ऽयं परित्यागः प्रेम्णा सिध्यति नान्यथा ।। 

ज्ञानमार्गे तु संन्यासो द्विविधोऽपि विचारितः ।।१४।।

ज्ञानार्थम् उत्तराङ्गं च सिद्धिर जन्मशतेः परम् ।। 

ज्ञानं च साधनापेक्षं यज्ञादि-श्रवणान् मतम् ।।१५।। 

अतः कले  स संन्यासः पश्चात्तापाय नान्यथा’ ।। 

पाषण्डित्वं भवेत् चापि तस्माज् ज्ञाने न संन्यसेत् ।। १६ ।।

सुतरां कलिदोषाणां प्रबलत्वाद् इति स्थितिः ।। 

भक्तिमार्गेऽपि चेद् दोषः तदा किं कार्यम् उच्यते ।।१७।।

अत्रारम्भे न नाशः स्याद् दृष्टान्तस्याप्यभावतः ।।

स्वास्थ्यहेतोः परित्यागाद् बाधः केनास्य सम्भवेत् ? ।।१८।।

हरिर् अत्र न शक्नोति कर्तुं बाधां कुतो ऽपरे ।।

अन्यथा मातरो बालान् न स्तन्यैः पुपुषुः क्वचित् ।।१९।।

ज्ञानिनाम् अपि वाक्येन न भक्तं मोहयिष्यतिः ।। 

आत्मप्रदः प्रियश्चापि किमर्थ मोहयिष्यति ? ।।२०।।

तस्माद् उक्त-प्रकारेण परित्यागो विधीयताम् ।। 

अन्यथा भ्रश्यते स्वार्थाद इति मे निश्चिता मतिः ।।२१।।

इति कृष्ण प्रसादेन वल्लभेन विनिश्वितम् ।। 

संन्यासवरणं भक्ती अन्यथा पतितो भवेत् ।।२२।। ।। 

इति श्रीवल्लभाचार्यविरचितः संन्यासनिर्णयः सम्पूर्णः ॥

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