सिद्धान्तमुक्तावली – षोडस ग्रंथ

श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभुजी द्वारा रचित षोडस ग्रंथ मे से एक ग्रंथ सिद्धान्तमुक्तावली ग्रंथ |

सिद्धान्तमुक्तावली ग्रंथ से जुड़ा वार्ता प्रसंग :

अच्युतदास कभी आन्योर, कभी पारसोली, कभी श्रीकुंड, कभी श्रीगोवर्धन में रहते थे। फिर जब आचार्यजी महाप्रभुजी गोवर्धन की तरहटी पहुंचे तो आन्यौर में सदुपांडे अपने घर सहित सभी सेवक हुए | अपने सेवकों के साथ महाप्रभुजी ने  श्रीनाथजी को गिरीराजजी से बाहर पधराए ।

उस समय अच्युतदास देवी जीव  जानकर उनका नाम निवेदन किया  | और कहा, आप श्रीनाथजी की सेवा कीजिए । तब अच्युतदास ने श्री आचार्यजी को दंडवत करके  विनती की, “महाराज! आप मुजपर एसी कृपा कीजिए की मे एकांत में रहु और मानसी सेवा में मन लगे | तब आचार्यश्री ने उनको आपका चरणामृत दिया | तब अच्युतादास ने पान किया | हाथ नेत्र से लगाकर हृदय से लगाया | तब अच्युतादास की आंखें अलौकिक हो गईं | वह लीला के दर्शन करने लगे |

भावप्रकाश: जिस प्रकार महादेवजी ने मर्यादा मार्ग में गंगाजी को अपने सिर पर रखा और भक्तराज बन गए, उसी प्रकार अच्युतदास ने श्री आचार्यजी के चरणों को अपने सिर पर रखा | और सदैव उनकी छाया में रहे। हृदय से लगाया जिससे सारी लीला हृदयागूढ़ हुई | फिर महाप्रभुजी ने उनको “सिद्धान्तमुक्तावली” ग्रंथ का अध्ययन कराया | जिससे मानसी सेवा मे लिन हो गए |

सिद्धान्तमुक्तावली

नत्वा हरिं प्रवक्ष्यामि स्वसिद्धान्त-विनिश्चयम् ।।

कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता ।।१।। 

चेतस् तत्प्रवणं’ सेवा तत्सिद्ध्यै तनुवित्तजा’ ।।

ततः संसार-दुःखस्य निवृत्तिर् ब्रह्म-बोधनम् ।।२।। 

परं ब्रह्म तु कृष्णो हि सच्चिदानन्दकं बृहत् ।।

द्विरूपं तद्धि” सर्व स्याद्”” एकं तस्माद् विलक्षणम्” ।।३।। 

अपरं तत्र पूर्वस्मिन् वादिनो बहुधा जगुः ।। 

मायिकं सगुणं कार्य स्वतन्त्रं चेति नैकधा ।।४।। 

तद् एवैतत्” प्रकारेण भवतीति श्रुतेर्मतम् ।।

द्विरूपं चापि गङ्गावज् ज्ञेयं सा जलरूपिणी ।।५।। 

माहात्म्य-संयुता नृणां सेवतां भुक्ति-मुक्ति-दा ।।

मर्यादामार्ग-विधिना तथा ब्रह्मापि बुध्यताम् ।।६।। 

तत्रैव’ देवता-मूर्तिः भक्त्या या दृश्यते क्वचित् ।।

गङ्गायां च विशेषेण प्रवाहाभेद-बुद्धये ।।७।। 

प्रत्यक्षा सा’ न सर्वेषां प्राकाम्यं स्यात् तया’ जले’ ।।

विहितात् च फलात् तद्धि प्रतीत्यापि विशिष्यते ।।८।।

यथा जलं तथा सर्व यथा शक्ता तथा बृहत् ।।

यथा देवी तथा कृष्णः……..

………………….तत्राप्येतद् इहोच्यते ।।९।। 

जगत्तु त्रिविधं प्रोक्तं ब्रह्म-विष्णु-शिवास् ततः ।।

देवता-रूपवत्-प्रोक्ता ब्रह्मणीत्थं हरिर्  मतः ।।१०।।

कामचारस्तु लोके-ऽस्मिन् ब्रह्मादिभ्यो न चान्यथा ।।

परमानन्दरूपे तु कृष्णे स्वात्मनि निश्वयः ।।११।।

अतस्तु ब्रह्मवादेन कृष्णे बुद्धिर् विधीयताम् ।।

आत्मनि ब्रह्मरूपेतु छिद्रा व्योम्नीव चेतनाः ।।१२।

उपाधि-नाशे विज्ञाने ब्रह्मात्मत्वावबोधने ।।

गङ्गा-तीर-स्थितो यद्वत् देवतां तत्र पश्यति ।।१३।।

तथा कृष्णं परं ब्रह्म स्वस्मिन् ज्ञानी” प्रपश्यति ।।

संसारी” यस्तु भजते स दूरस्थो यथा तथा ।।१४।। 

अपेक्षित-जलादीनाम् अभावात् तत्र दुःख-भाक् ।।

तस्मात् श्रीकृष्णमार्गस्थो विमुक्तः सर्वलोकतः ।।१५।। 

आत्मानन्द-समुद्रस्थं कृष्णमेव विचिन्तयेत् ।।

लोकार्थी चेद् भजेत् कृष्णं क्लिष्टो भवति सर्वथा ।।१६।।

क्लिष्टोऽपि चेद् भजेत् कृष्णं लोको नश्यति सर्वथा ।।

ज्ञानाभावे पुष्टिमार्गी तिष्ठेत् पूजोत्सवादिषु ।।१७।। 

मर्यादास्थस्तु गङ्गायां श्रीभागवत-तत्परः ।।

अनुग्रहः पुष्टिमार्गे नियामक इति स्थितिः ।।१८।। 

उभयोस्तु क्रमेणैव पूर्वोक्तेव फलिष्यति ।।

ज्ञानाधिको भक्तिमार्गः एवं तस्मात् निरूपितः ।।१९।। 

भक्त्यभावेतु तीरस्थो यथा दुष्टः स्वकर्मभिः ।।

अन्यथाभावमापन्नस् तस्मात् स्थानाच्च नश्यति।। २० ।।

एवं स्व-शास्त्र-सर्वस्वं मया गुप्तं निरूपितम् ।।

एतद् बुद्ध्वा विमुच्येत पुरुषः सर्व-संशयात् ।।२१।।

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