डोलोत्सव – धूलेटी
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| होलीका उत्सव | होलीका पूजन | होलीका दहन | डोलोत्सव ( डोल ), धूलिवन्दन ( धुरेण्डी )।
तिथि : फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा
दोलोत्सव महामहोत्सव कहलाता है | श्री चन्द्रावली जी की सेवा का यह मुख्य उत्सव है | श्री हरिराय महाप्रभु की दोलोत्सव भावना के अनुसार यह अत्यंत गोपनीय लीला है |
डोलोत्सव भाव :
डोल – हिंडोल
डोल का अर्थ है हिंडोल माने जुला | लता , पता , फूल एवं पत्तियों से बना जुला जिसमे प्रभु को जुलाते है | इन सब सामग्री को ‘डोल’ के रूप मे अंगीकार करके प्रभु भक्तों के हृदय मे जुलते है |
श्री कृष्ण डोलोत्सव लीला :
गोकुल मे नंदालय मे यशोदा मैया अग्नीकुमारिका के सहकार से डोल का निर्माण करती है | साथ साथ श्री राधारानीजी को अपनी सखिया श्री चंद्रावलीजी और श्री ललिताजी के साथ आमंत्रित किया जाता है | फिर यशोदाजी राधाजी को आज्ञा करके प्रभु को डोल जुलाने को कहती है |
राधाजी नंदालय मे होने से बाहिरी बाल भाव और आंतरिक माधुर्य भाव से प्रभु को डोल जुलाती है | सभी सखिया राधाजी के साथ प्रभु भारी खेल खिलाती है | नंदरायजी एवं यशोदाजी भी प्रभु को खेल खिलाते है | पूरा परिवार मिलकर होरी खेलते है | सभी बृजवासी भी खेल के दर्शन करते है और होरी खेलते है |
श्री वृषभानजी एवं श्री कीर्तिजी प्रभु श्री कृष्ण को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं | अपने जंवाई को आमंत्रित कर विविध प्रकार की सामग्रियां अरोगाते हैं एवं तत्पश्चात गुलाल, अबीर छांटकर होली खेलाते हैं |
डोलोत्सव प्रभु की गुप्त दिव्य क्रीडा है | डोलोत्सव रास लीला है | इस कारण से यह गिरीराजजी, कुंज आदि स्थानों मे होती है |
मुख्यतः डोल ४ स्थानों मे होते है |
१ श्री गोवर्धन मे डोल

२ कुंज मे डोल

३ श्रीमद गोकुल मे डोल

४ यमुनाजी के तट मे डोल

कीर्तन – (राग : सारंग)
डोल झुलावत लाल बिहारी,नाम लेले बोले लालन प्यारी ।
हे दुल्हा दुलहनी दुलारी सुंदर सरस कुमारी ।।
नखसिख सुंदर सिंगारी केसु कुसुम सुहस्त सम्हारी ।
श्याम कंचुकी सुरंग सारी चाल चले छबि न्यारी।।१।।
वारंवार बदन निहारी अलक तिलक झलमलारी ।
रीझ रीझ लाल ले बलिहारी पुलकित भरत अंकवारी ।।
कोककला निपुन नारी कंठ सरस सुरहि भारी ।
सुयश गावत लाल बिहारी बिहारिन की बलिहारी ।।२।।
कुंज मे सभी स्वामीनिजी माधुर्य भाव से डोल का निर्माण करती है फिर युगलस्वरूप को डोल मे बिराजित करती है और उनको होरी के रंग से , केसुड़ा के जल से भारी होरी खेल खिलाती है | आपस मे होरी खेलते है | यह चंद्रावलीजी की सेवा का क्रम है | डोल यह ४० दिवस होरी खेल का उत्तम उत्सव है इसलिए इस उत्सव को महा महोत्सव कहा जाता है |
पुष्टिमार्गीय हवेली मे डोल का अधिवासन होवे है | पुष्टिमार्ग में दोलोत्सव को काम-विजय उत्सव भी कहा जाता है | बसंत-पंचमी (जिसे मदन-पंचमी भी कहा जाता है) पर कामदेव का प्रादुर्भाव हुआ | और उन्होंने हमारे योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण को अपने अर्थात काम के वश में करने की ठानी |
गुलाल, अबीर, चोवा, चन्दन, अरगजा आदि सुगन्धित साधन एवं रंग कामोद्दीपक माने जाते हैं | और प्रतिदिन इनके प्रयोग से प्रभु काम के वश में होंगे ये कामदेव का भ्रम था | इसके अलावा स्त्री वेश (विविध भांति की चोलियाँ) आदि पहना कर भी कामदेव ने प्रभु को काम के वश में करने की कुचेष्टा की परन्तु श्री कृष्ण को योगेश्वर ऐसे ही नहीं कहा जाता |
कुछ वाद्य यंत्रों की ध्वनि भी कामोद्दीपक मानी जाती है | अतः ढप, ढ़ोल बजा कर, रसिया (बैठे और ठाडे), धमार और अमर्यादित गालियाँ गाकर प्रभु को भोगी सिद्ध करने का निरर्थक प्रयास किया.
अंततोगत्वा चालीस दिन के निरर्थक प्रयास के पश्चात कामदेव ने प्रभु से क्षमा मांगी |
तब योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण ने दोलोत्सव के रूप में काम-विजय उत्सव मनाया | आज सबसे अधिक गुलाल काम पर विजय के भाव से उड़ायी जाती है |
वसंत पंचमी के पद, होरी डंडा रोपण के पद, कुंज एकादशी के पद, गुसाइजी की अष्टपदी, डोल के पद, होली खेल के 40 दिवस दरमियान नित्य सेवा के पद नीचे दी गई ई-बुक मे है |
जो हमारे पध्य साहित्य शेकशन मे उपलब्ध है |