कसुंबा छठ
कसुंबा छठ पुष्टिमार्ग वार्ता प्रसंग , श्रीनाथजी सेवा क्रम , कसुंबा छठ के पद , गुसाइजी से जुड़ा अद्भुत प्रसंग , महातम्य दर्शन | आज श्री वल्लभाचार्यजी के लौकिक पितृचरण श्री लक्ष्मणभट्ट जी का प्राक्टयोत्सव है |
तिथि : अषाढ़ शुक्लपक्ष षष्ठी
कसुंबा छठ से जुड़ा श्री गुसाइजी और श्रीजी के विरह का प्रसंग
भूतल पर प्रसंग
एक समय श्रीनाथजी ने राजभोग के पश्चात रामदासजी से कहा मे भूखा हु| रामदासजी ने गुसाइजी को बताया | गुसाईजिकों ज्ञात हो गया की नित्यलीला का वह अधूरा कार्य अब पूर्ण करने का समय नजदीक है |
इसलिए जितनी सेवा मिले उतनी कर ले फिर सेवा प्राप्त होना कठिन है | गुसाईजीने बड़ीभात की सामग्री अपरस मे सिद्ध करके प्रभु को धरी | फिर ठाकोरजी के आरोगने के पश्चात गुसाईजीने स्वयं प्रसाद कणिका ग्रहण कि |
और रंचक सभी वैष्णवों को दिया | तब सब ने प्रसाद को आनंद से लिया तब कृष्णदासजी वहा आए | वह अधिकारी थे फिर भी वह प्रसंग से अवगत नहीं थे |कृष्णदासजी ने व्यंग मे कहा “आप ही करने वाले और आपही भोगने वाले ! तो स्वाद क्यों न आवे ” |
तब श्री गुसाईजी ने कहा “हा हम हमारा किया हम ही भुगत रहे है” (व्यंग)(जो इस प्रसंग से भी जुड़ा है और जो नित्यलीला प्रसंग से भी जुड़ा है) | {कृष्णदासजी को भी पूर्व मे श्रीजीबावा ने आज्ञा की थी की “आप के द्वारा एक दिव्य कार्य का निर्माण होना है | उसमे आपका लौकीक और अलौकिक दोनों बिगड़ सकता है | क्या आप करेंगे” |
तब कृष्णदासजी ने प्रभु की आज्ञा पालन और आपके सुख के लिए कुछ भी करने की तत्परता मे आज्ञा मानी } और कृष्णदासजी ने अधिकारी के दौर पर श्री गुसाईजी को श्रीनाथजी के दर्शन और सेवा बंध कराई |
श्री गुसाईजीको नित्य श्रीजीबावा का संयोग प्राप्त था इस कारणसे अद्भुत ग्रंथ “विज्ञप्ति” की रचना कठिन थी | इसलिए आपको अगर श्रीजीबावा का विरह प्राप्त हो तो ही वह ग्रंथ की रचना हो सकती है | इस मुख्य कारण से यह समग्र लीला का निरूपण हुआ था |

chandra sarovar parasoli
श्री गुसाईजी परासोली चंद्रसरोवर पधारे |श्रीजी के मंदिर मे पारसोली की तरफ एक खिड़की थी | श्रीजी बावा को गुसाईजीका विरह होता इस कारणसे आप कृष्णदासजी के जाने के बाद शाम को खिड़की पर बिराजमान हो कर गुसाईजी को दर्शन देते |
एक दिन कृष्णदासजी ने यह द्रश्य देखा और तुरंत प्रातः काल वह खिड़की चुनवा दी | इस कारण से दोनों और विरह और बढ़ने लगा | श्री गुसाईजी भोग नहीं आरोगते | रामदासजी राजभोग के पश्चात चरणोदक और प्रसादी बीड़ा ले कर पधारते |
मालाजी के साथ विज्ञप्ति रामदासजी के साथ श्रीजीबावा को भिजवाते | श्रीजीबावा श्री गुसाईजी विज्ञप्ति पढ़ते और श्रीजीबावा आपकी विडा की पीक से उत्तर लिख कर श्री गुसाईजी के लिए भिजवाते | श्रीगुसाईजी उत्तर पढ़ते और फिर वही बीड़ा जलमे घोलकर ग्रहण करते |
केवल उस पर ही छे मास का समय पसार किया | श्री गुसाईजी श्रीनाथजीके उत्तर वाले बीड़ा जलमे घोलकर ग्रहण करते इस कारणसे श्रीजी के उत्तर प्रकट नहीं हुए | श्री गुसाईजी ने जो विज्ञप्ति रची केवल वही प्रकट हुई | यह क्रम छे मास तक चला |
दोनों स्वरूप को एक दूसरे का विरह होता | फिर एकदिन बीरबल गोकुल आए | वहा श्री गुसाईजी के दर्शन न होने पर श्री गिरधरजी के दंडवत प्रणाम किए | और पूछा की श्री गुसाईजीके दर्शन बहुत समय से नहीं हुए है |
तब श्री गिरधरजी ने आज्ञा की कृष्णदासजी ने श्री गुसाईजीके दर्शन बंध किए है | इसलिए पारसोली बिराज रहे है | श्रीनाथजी की सेवा मे ना होने का खेद कर रहे है | तब मथुरा की फोजदारी बिरबलके हाथ मे थी |
उसने तुरंत मथुरा जाकर ५०० सैनिक भेजकर कृष्णदासजी को मथुरा ले आए | और वहा उनको बंदी खाने मे बंद किया | समाचार गोकुल तक पहुचाए | और श्री गिरधरजी रात्रिको ही गोकुल से पारासोली पधारे |
श्री गुसाईजी को गिरीराजजी पधारकर श्रीनाथजी के सेवा शृंगार की बिनती की | तब गुसाईजी ने प्रश्न किया “क्या कृष्णदासजी मान गए?” तब श्री गिरधरजी ने कहा नहीं बिरबलने उनको बंदीखाने मे बंद किया है | इसलिए अब आप पधार सकते है |
तब गुसाईजी कहते है “श्री महाप्रभुजी के सेवक परम भगवदीय कृष्णदासजीको इतना कष्ट ! वह जब तक नहीं आएंगे तब तक हम अन्न जल नहीं लेंगे “| यह सुनकर श्री गिरधरजी तुरंत श्री मथुराजी आए | और बीरबल को श्री गुसाईजीकी आज्ञा कही |
अगर आपने अगली बार एसा कुछ किया तो मे नहीं छोड़ूँगा” | श्री गिरधरजी कृष्णदासजी को लेकर पारसोली पधारे | श्री गुसाईजी कृष्णदासजी को देख कर प्रसन्न हो कर खड़े हुए | श्री कृष्णदासजी ने आपको दंडवत किए, चरनस्पर्श किए और कहा “मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए | और पुनः श्री गोवर्धननाथजी की सेवा मे पधारिए |”
अषाढ़ सूद ६ आज के दिन श्री गुसाईजी पुनः श्रीगोवर्धननाथजी की सेवा मे आए | कसुंबी पाघ का श्रींगार किया | शयन पर्यंत तक की सेवा संभालने के बाद श्री गुसाईजीने पुनः कृष्णदासजी को अधिकारी का दुशाला श्रीनाथजी की सन्मुख ओढ़ाया |
और आज्ञा की “हमारे गोवर्धनधर का अधिकार कीजिए | तब कृष्णदासजी भावुक हुए तब उन्होंने एक पद की रचना की जो हाल के समय मे प्रचलित है
परम कृपाल श्री वल्लभ नंदन करत कृपा निज हाथ दे माथे l
जे जन शरण आय अनुसरही गहे सोंपत श्री गोवर्धननाथे ll 1 ll
परम उदार चतुर चिंतामणि राखत भवधारा बह्यो जाते l
भजि ‘कृष्णदास’ काज सब सरही जो जाने श्री विट्ठलनाथे ll 2 ll