परमानंद दास जी – अष्ट छाप कवि

परमानंद दास जी के बारे मे सभी जानकारी , परमानंद दास जी का योगदान

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श्रीनाथजी के अष्ट सखा परमानंद दास जी का जीवन परिचय , रचनाए , वार्ता प्रसंग एवं सभी जानकारी |

श्री महाप्रभुजी ने नए मंदिर के निर्माण पश्चात आपके दोनों लालन सहित श्रीजी को पाट पधराया। आपके विध्यायगुरु माध्वानन्द यति को श्रीजी की सेवा गुरु दक्षिणा के रूप मे सोपी । कृष्णदासजी को अधिकारी बनाया और फिर आपके स्वधाम अड़ेल पधारे |

अब… एक और देवी जीव श्री वल्लभ के चरणों में आने के लिए सज्ज हो रहे है। वीं. सं. १५५० मे कन्नोजमे एक निर्धन परिवार के वहा एक पुत्र का जन्म हुआ। तब गाव के एक श्रीमंत व्यापारी के पास से माता पिता को पुष्कल धन मिला और उनको अत्यंत आनंद मिला |

इस कारण से पुत्र का नाम परमानन्द रखा। बचपनसे ही उनके कंठ में अद्भुत माधुर्य था | व्यवस्थित संगीत की तालिम ली शब्द, सुर और लय का त्रिवेणी संगम हुआ। खुद एक अच्छे सर्जक थे। देश विदेश मे कवीश्वर नाम से प्रख्यात हुए। उनके कई शिष्य बने, परमानन्द स्वामि कहलाए उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी।

महाप्रभुजी के सेवक देवाकपूर क्षत्रिय को परमानन्द स्वामि के कीर्तन में आशक्ति थी। एक बार एकादशी की रात्रिको परमानन्द जी कीर्तन गा रहे थे। कई सारे लोग दूर दूर से आए हुए थे। उसमे देवा कपूर क्षत्रिय भी परमानन्द जी के कीर्तन सुन रहे थे।

परमानन्दजी की कीर्तन गाते गाते नजर देवाकपूर पर पड़ी और उनको एक अद्भुत दिव्य झाखी हुई की देवाकपूर की गोदी में विराजकर साक्षात स्वयं ” श्री नवनीत प्रियाजी ” परमानंद जी के कीर्तन सुन रहे थे।

परमानंद दास जी को नवनीत प्रियाजी के दर्शन , परमानंद दास जी के वार्ता प्रसंग

सोचने लगे की जिनके शिष्य की गोदी मे बिराजकर प्रभु मेरे कीर्तन सुन रहे है | उनके गुरुमे कितना सामर्थ्य होगा। रात्रिको स्वप्न मे भी श्री नवनीत प्रियाजी के दर्शन हुए। बड़ी मुश्किल से  रात पसार हुई |

सुबह उठकर गंगाजी के घाट की ओर दौड़े। एक नाव अड़ेल जाने के निकल ही रही थी और परमानन्द स्वामि ने घाट पर से नाव मे सीधे कूदे और अड़ेल की और प्रयाण किया। दूसरी ओर श्री महाप्रभुजी स्नान करके लौट रहे थे।

परमानन्दजी को श्री महाप्रभुजी के दर्शन हुए और उनको पीछे पीछे घाट की ओर गए। श्री महाप्रभुजी संध्यावन्दन कर रहे थे और परमानन्दजी ने सन्मुख बैठ कर विरह के चार पद गाए । श्री महाप्रभुजी प्रसन्न हुए।

परमानंद दास जी को श्री वल्लभाचार्य जी महाप्रभुजी दर्शन

थोड़ी देर मे देवाकपुर क्षत्रिय जल भरके यहा आए और उनके  पीछे पीछे परमानन्द स्वामि श्री महाप्रभुजीके गृह आए। देवाकपूर क्षत्रिय की बिनती से श्री महाप्रभुजीने परमानन्दजी को नाम निवेदन कराया |

ब्रम्ह संबंध हुआ. दास भाव प्रकट हुआ और अब परमानन्द स्वामि से परमानन्द दास बने। समय समय पर श्री नवनीतप्रियाजी की सन्मुख कीर्तन गाते। अनौसर के समय मे श्री महाप्रभुजी के सन्मुख ब्रिजलीला के कीर्तन गाते। एक दिन अचानक परमानन्द दासजी ने श्री महाप्रभुजी के सन्मुख एक अलौकिक पद का गायन करके एक अलौकिक मांग की है।

यह मांगों श्री गोपिजन वल्लभ मांगु मानुस जनम और हरी सेवा ब्रिज बसीबों दीजे मोही सुलभ 

 श्री महाप्रभुजी दक्षिण की ओर प्रयाण कर रहे थे परंतु परमानन्द जी के यह पद को सुनकर सोचा उनकी दशा सिद्ध हुई है, अब इन्हे ब्रिज ले जाना है। परमानन्दजी के साथ ब्रिज की ओर प्रयाण किया।बीचमे परमानन्दजी का गाव कन्नोज रास्ते मे आया |

परमानन्दजीने अपने शिष्यों को भी श्री वल्लभ के शरण मे लाए। श्री महाप्रभुजी कृपा करके उनके घर पधारे । परमानंददासजिने आपकी सेवा बहुत अच्छी तरह की। श्री महाप्रभुजीने खुद सामग्री सिद्ध करके प्रभु को भोग धराया ॥

भोग सराकर आप गादि मे बिराजे और परमानन्ददास -को भगवद लीला गाने की आज्ञा की | तब परमानन्ददासजी ने सोचा की श्री महाप्रभुजी को गोवर्धननाथजी का विरह हो रहा होगा इसलिए एक विरह का अद्भुत पद का गायन किया। 

“हरी तेरी लीला की सुधि आवे”

यह पद सुनकर श्री महाप्रभुजी मूर्छित हो गए।

परमानंद दास जी के द्वारा गाए गए पद हरी तेरी लीला की सुधि आवे सुनकर महाप्रभुजी मूर्छित हुए

 जिस लीला का पद है उस लीला ने श्री महाप्रभुजी मग्न हो गए। चौथे दिन प्रातः मूर्छा छूटी तब सभी वैष्णव आपने दर्शन करके अत्यंत प्रसन्न थे परंतु परमानन्ददासजी थोड़े डरे हुए थे | और श्री महाप्रभुजी की कृपा से निर्णय किया की अब से बाल लीला ही गान करेंगे |

फिर सभी वैष्णव को लेकर श्री महाप्रभुजी ब्रिज की ओर प्रयाण किया । ब्रिज मे गोकुल पधारे और सारस्वत कल्प की लीला की स्फुरणा हुई। श्री वल्लभ ने एसी अद्भुत कृपा की कि श्री परमानन्ददासजी को सारस्वत कल्प की वह अद्भुत बाल लीला के दर्शन हुए |

जहा सब ब्रिज वासी की चहल पहल है और प्रभु बाल रूप से लीलाए कर रहे हैं | एसी मनोहर लीला के दर्शन करके परमानन्ददासजी के हृदय में बालभाव स्थित हुआ | तब से उन्होंने बाल लीला के ही पद की रचनाएं की है और गायन किया है |

उत्थापन के समय श्री महाप्रभुजी उनको लेकर  गोपालपुर पधारे। श्रीनाथजीके कोटी कंदर्प लावण्य युक स्वरूप के दर्शन करके परमानन्ददासजी तन्मय हो गए। शयन पर्यंत कीर्तन करते रहे।

फिर परमानन्दजी सुरभि कुंड आ कर बसे। फिर जीवन पर्यंत वही रहे और नित्य श्रीजीबावा की सेवा मे कीर्तन गाए। वैष्णवों के लिए बड़ा ही अद्भुत स्नेह रखते । श्रीजीबावा भी उनके कीर्तन से खूब प्रसन्न रहते।  वह वैष्णवन का भी बड़े आदर सन्मान करते एवं स्नेह भाव था | जब उनके निवास पर भगवदीय पधारे तब उनके हृदय मे उमंग छाया और पद की रचना की |

आये मेरे नंद नंदन के प्यारे। माला तिलक मनोहर बानो त्रिभुवन के उजियारे।।१।।

हृदय कमल के मध्य बिराजत श्री वृजराज दूलारे। प्रेम सहित वसत उर मोहन नेक हुं टरत न टारे।।२।।

कहा जानूं को पून्य उदय भयो मेरे घरजु पधारे। *’परमानंद’ कर न्योछावर वार वार होंतन वारे..आये मेरे नंद नंदन के प्यारे।।३।।

परमानंददासजी के अन्य वार्ता प्रसंग 84 वैष्णव की वार्ता मे , गुजराती एवं हिन्दी-ब्रिज भाषा मे पढ़ने के लिए नीचे दीए बटन पर स्पर्श करे |

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