परमानंद दास जी – अष्ट छाप कवि
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श्रीनाथजी के अष्ट सखा परमानंद दास जी का जीवन परिचय , रचनाए , वार्ता प्रसंग एवं सभी जानकारी |
श्री महाप्रभुजी ने नए मंदिर के निर्माण पश्चात आपके दोनों लालन सहित श्रीजी को पाट पधराया। आपके विध्यायगुरु माध्वानन्द यति को श्रीजी की सेवा गुरु दक्षिणा के रूप मे सोपी । कृष्णदासजी को अधिकारी बनाया और फिर आपके स्वधाम अड़ेल पधारे |
थोड़ी देर मे देवाकपुर क्षत्रिय जल भरके यहा आए और उनके पीछे पीछे परमानन्द स्वामि श्री महाप्रभुजीके गृह आए। देवाकपूर क्षत्रिय की बिनती से श्री महाप्रभुजीने परमानन्दजी को नाम निवेदन कराया |
ब्रम्ह संबंध हुआ. दास भाव प्रकट हुआ और अब परमानन्द स्वामि से परमानन्द दास बने। समय समय पर श्री नवनीतप्रियाजी की सन्मुख कीर्तन गाते। अनौसर के समय मे श्री महाप्रभुजी के सन्मुख ब्रिजलीला के कीर्तन गाते। एक दिन अचानक परमानन्द दासजी ने श्री महाप्रभुजी के सन्मुख एक अलौकिक पद का गायन करके एक अलौकिक मांग की है।
यह मांगों श्री गोपिजन वल्लभ मांगु मानुस जनम और हरी सेवा ब्रिज बसीबों दीजे मोही सुलभ
श्री महाप्रभुजी दक्षिण की ओर प्रयाण कर रहे थे परंतु परमानन्द जी के यह पद को सुनकर सोचा उनकी दशा सिद्ध हुई है, अब इन्हे ब्रिज ले जाना है। परमानन्दजी के साथ ब्रिज की ओर प्रयाण किया।बीचमे परमानन्दजी का गाव कन्नोज रास्ते मे आया |
परमानन्दजीने अपने शिष्यों को भी श्री वल्लभ के शरण मे लाए। श्री महाप्रभुजी कृपा करके उनके घर पधारे । परमानंददासजिने आपकी सेवा बहुत अच्छी तरह की। श्री महाप्रभुजीने खुद सामग्री सिद्ध करके प्रभु को भोग धराया ॥
भोग सराकर आप गादि मे बिराजे और परमानन्ददास -को भगवद लीला गाने की आज्ञा की | तब परमानन्ददासजी ने सोचा की श्री महाप्रभुजी को गोवर्धननाथजी का विरह हो रहा होगा इसलिए एक विरह का अद्भुत पद का गायन किया।
“हरी तेरी लीला की सुधि आवे”
यह पद सुनकर श्री महाप्रभुजी मूर्छित हो गए।
जिस लीला का पद है उस लीला ने श्री महाप्रभुजी मग्न हो गए। चौथे दिन प्रातः मूर्छा छूटी तब सभी वैष्णव आपने दर्शन करके अत्यंत प्रसन्न थे परंतु परमानन्ददासजी थोड़े डरे हुए थे | और श्री महाप्रभुजी की कृपा से निर्णय किया की अब से बाल लीला ही गान करेंगे |
फिर सभी वैष्णव को लेकर श्री महाप्रभुजी ब्रिज की ओर प्रयाण किया । ब्रिज मे गोकुल पधारे और सारस्वत कल्प की लीला की स्फुरणा हुई। श्री वल्लभ ने एसी अद्भुत कृपा की कि श्री परमानन्ददासजी को सारस्वत कल्प की वह अद्भुत बाल लीला के दर्शन हुए |
जहा सब ब्रिज वासी की चहल पहल है और प्रभु बाल रूप से लीलाए कर रहे हैं | एसी मनोहर लीला के दर्शन करके परमानन्ददासजी के हृदय में बालभाव स्थित हुआ | तब से उन्होंने बाल लीला के ही पद की रचनाएं की है और गायन किया है |
उत्थापन के समय श्री महाप्रभुजी उनको लेकर गोपालपुर पधारे। श्रीनाथजीके कोटी कंदर्प लावण्य युक स्वरूप के दर्शन करके परमानन्ददासजी तन्मय हो गए। शयन पर्यंत कीर्तन करते रहे।
फिर परमानन्दजी सुरभि कुंड आ कर बसे। फिर जीवन पर्यंत वही रहे और नित्य श्रीजीबावा की सेवा मे कीर्तन गाए। वैष्णवों के लिए बड़ा ही अद्भुत स्नेह रखते । श्रीजीबावा भी उनके कीर्तन से खूब प्रसन्न रहते। वह वैष्णवन का भी बड़े आदर सन्मान करते एवं स्नेह भाव था | जब उनके निवास पर भगवदीय पधारे तब उनके हृदय मे उमंग छाया और पद की रचना की |
आये मेरे नंद नंदन के प्यारे। माला तिलक मनोहर बानो त्रिभुवन के उजियारे।।१।।
हृदय कमल के मध्य बिराजत श्री वृजराज दूलारे। प्रेम सहित वसत उर मोहन नेक हुं टरत न टारे।।२।।
कहा जानूं को पून्य उदय भयो मेरे घरजु पधारे। *’परमानंद’ कर न्योछावर वार वार होंतन वारे..आये मेरे नंद नंदन के प्यारे।।३।।
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