सूरदास अष्ट छाप कवि

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श्रीनाथजी के अष्ट सखा , अष्टछाप कवि श्री सूरदास जी का जीवन परिचय |

श्री महाप्रभुजीने आज्ञा की ..जब से हम प्रभु से दूर हुए तब से हम सब पतित ही है। अपने दुख को लेकर रोओ मत प्रभु इसे प्रसन्न नहीं होंगे। उनकीलीला गुणगान गाओ और कुछ भगवद यश का गान करो तभी प्रभु प्रसन्न होंगे। तब सुर स्वामि बोले प्रभु मे भगवद लीला समजता नहीं हु ।
तब श्री महाप्रभुजीने उनको ब्रम्ह संबंध कराया और अब “सुरस्वामि सूरदास हुए। फिर श्री महाप्रभुजीने श्रीमद भागवत के दशम स्कन्ध का सारांश सुरदासजिकों सुनाया और प्रभु की लीला सुरदासजी के अंतर मे स्थापित कि।
श्री सुरदासजी ने फिर भगवद लीला का अद्भुत पद की रचना करके सुनाया | अपने सारे सेवाको को श्री महाप्रभुजीके सन्मुख किए। फिर श्री महाप्रभुजी के साथ ब्रिजमे गोकुल में आकर श्री नवनीत प्रियाजी के दर्शन किए।
फिर गोपालपुर आकर श्रीनाथजी के दर्शन किए और एक से एक उतमोत्तम पदों की रचना करके प्रभु के सनमुख गाने लगे। प्रभु भी उनके कीर्तन से अति प्रसन्न होते।

सुरदासजि पारासोली मे चंद्रसरोवर के पास कुटीर बनाकर रहने लगे | सूरदासजी का योगदान केवल पुष्टिमार्ग के हवेली संगीत मे ही नहीं परंतु समग्र भारत के हिन्दी साहित्य मे सूरदासजी का अद्वितीय योगदान रहा है |
यू कहे की हिन्दी साहित्य के एक मूलभूत आधार स्तम्भ रहे है | उन्होंने कुछ सवा लाख पदों की रचना की है | इस कारण से उनको “सुर सागर” की पदवी मिली है । कई साल तक श्री सुरदासजिने श्रीनाथजी की सेवा मे पद गाए।
श्री गोवर्धननाथजी के अंतरंग सखा के रूप मे जीवन जिया है | श्री कृष्ण उनको विभिन्न अनुभूति कराते , सहानुभाव देते | कई बार सूरदासजी के अधूरे पदों को साक्षात प्रभु श्री कृष्ण ने पूरा किया है | इसी कारण उन पदों मे “सुर श्याम” की छाप है | आज भी हम पदों मे यह छाप के दर्शन कर शकते है | उनपर सदा श्री गोवर्धनधर एवं श्री महाप्रभुजी की कृपा बरसी है |
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